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Tuesday, June 9, 2009

प्रश्न-मुक्ति अभियान

मैंने समाधि की स्थिति को देखा है। समाधि में कोई अज्ञात ज्ञात नहीं होता। समाधि में आशा-विचार-इच्छाएं चुप हो जाती हैं - यह मैंने देखा है। "समाधि हुआ है" - यह कैसे कहा जाए? इसलिए समाधि के बाद संयम किया। जिसके फलस्वरूप मैंने सह-अस्तित्व स्वरूपी अस्तित्व का अध्ययन किया - और वह मुझे समझ में आया। समझने के बाद मुझे पता चला यह मानव-जाति के पुण्य से मुझे समझ में आया है, इसको मानव को अर्पित किया जाए। उसी क्रम में मैं आज आप तक पहुँचा हूँ। मुझे आप से एक कौडी की भी ज़रूरत नहीं है। मैं अपने आप में संतुष्ट हूँ। अपने पुरुषार्थ से मैं जो वस्तु उपार्जित करता हूँ, उससे संतुष्ट हूँ। इस तरह - अपने पुरुषार्थ और परमार्थ दोनों से मैं संतुष्ट हूँ।

मुझको अभी तक किसी कुंठा या निराशा ने प्रताड़ना नहीं दिया। मैंने कुंठा को देखा नहीं। निराशा को देखा नहीं। यंत्रणा से मैं कभी पीड़ित नहीं हुआ।

जो मैं पाया, उसे मानव-जाति को पहुँचा कर तो देखें! देखें - मानव इसको कैसे स्वीकारता है! यदि मानव इसको स्वीकार लेता है तो उसका धरती पर बने रहना सम्भव है। यदि नहीं स्वीकार होता है, तो इससे कोई अच्छी चीज़ को अनुसंधान करना पड़ेगा। इससे कम अच्छे में तो काम नहीं चलेगा!

इस बात को समझाने में मुझ में यह कमी रही - मैं स्कूल-कॉलेज में पढ़ा हुआ आदमी नहीं हूँ। स्कूली शिक्षा मेरे पास कुछ भी नहीं है। फ़िर भी मुझ में अनुभव के आधार पर हर मोड़-मुद्दे का समाधान मेरे पास आता है। उसके आधार पर मैं आप के सम्मुख प्रस्तुत होता हूँ।

संसार के ७०० करोड़ आदमियों के पास यदि विधिवत कोई प्रश्न बनता है - तो उसका उत्तर मेरे पास है। "विधिवत" प्रश्न से आशय है - किसी लक्ष्य के लिए पूछा गया प्रश्न। इसको आप "प्रश्न मुक्ति अभियान" कह सकते हैं।

- जीवन विद्या राष्ट्रीय सम्मलेन २००६ कानपूर में बाबा श्री नागराज शर्मा के उदबोधन पर आधारित

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