संवेदना = पूर्णता के अर्थ में वेदना। यह संवेदना की परिभाषा बनी। संवेदनाओं में संतुष्टि मिलता नहीं है - इसी लिए वेदना। संवेदनाओं में पूर्णता की अपेक्षा (प्यास) रहते हुए भी अभाव का संकट बना रहता है, असंतुष्टि बनी रहती है।
संवेदनाओं के अर्थ में जीने से सार्वभौमता को प्राप्त नहीं किया जा सकता। मुझको खाने में जो अच्छा लगता है, वह आपको भी अच्छा लगे - ऐसा कोई नियम नहीं है। मुझको जितना सोने की आवश्यकता है, उतनी ही आपको भी हो - ऐसा कोई नियम नहीं है। संवेदनाओं के अर्थ में हर व्यक्ति अपने में एक स्वरूप है।
संवेदनाओं में संतुष्टि मिलती नहीं है। संवेदना विधि से मानवीय परम्परा बन नहीं सकती। हम यदि संवेदनाओं में जीने से स्वयं संतुष्ट नहीं हैं, तो अपने बच्चों को क्या संतुष्टि देंगे? इस तरह यही कहना बनता है - हमको इतने पैसे से संतुष्टि नहीं हुआ, शायद हमारे बच्चे इससे ज्यादा पैसे से संतुष्ट हो जायेंगे! इस तरह की सोच बनती है।
मानव समझदारी पूर्वक (सह-अस्तित्व में अनुभव पूर्वक) ही न्याय-सम्मत कार्य-व्यवहार करता है। समझदारी यदि नहीं है, तो न्याय-संगत कार्य-व्यवहार नहीं करता, सवेंदना-संगत कार्य-व्यवहार करता है। संवेदना-संगत कार्य-व्यवहार से न्याय नहीं मिल सकता।
समझदारी सबको मिल सकता है। हर मनुष्य समझदार होने योग्य है। हर व्यक्ति को समझदारी पूर्वक न्याय मिल सकता है।
- जीवन विद्या राष्ट्रीय सम्मलेन २००६, कानपुर में बाबा श्री नागराज शर्मा के उदबोधन पर आधारित
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