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Monday, June 15, 2009

हर मनुष्य में अनुभव करने का माद्दा है

अनुभव = अनुक्रम से होना-रहना

मैंने जो भी प्रस्तुत किया है वह अनुभव-मूलक विधि से किया है। मेरा विश्वास है - हर व्यक्ति में अनुभव करने का माद्दा है।

विगत में कहा था - "अनुभव को बताया नहीं जा सकता"। मैं कह रहा हूँ - अनुभव को ही ठोक-बजाऊ तरीके से बताया जा सकता है। शानदारी से यदि कुछ बताया जा सकता है तो वह अनुभव ही है। दूसरा कुछ भी शानदारी से नहीं बताया जा सकता।

अनुभव के लिए मेरे बुजुर्गों ने जैसा मेरा मार्ग-दर्शन किया था वैसे मैंने प्रयत्न किया। समाधि तक भी पहुंचे। समाधि में जब अज्ञात ज्ञात नहीं हुआ तब मैंने संयम किया। संयम के बारे में पंतांजलि योग-सूत्र में लिखा है - "धारणा ध्यान समाधिः त्रयामेकत्रवा संयमः"। विभूतिपाद में जो संयम के फल-परिणाम के बारे में लिखा है, उससे मुझे लगा वह केवल सिद्धि प्राप्त करने के लिए है, उससे कोई अज्ञात ज्ञात नहीं होगा। वह सब अप्राप्त को प्राप्त करने के लिए है - ऐसा मुझे लगा। "समाधि के बाद अप्राप्त को प्राप्त करने की इच्छा कैसे रह गयी? यदि रह गयी तो समाधि कैसे हुआ, माना जाए?" - यह प्रश्न मुझ में हुआ। मैंने पंतांजलि द्वारा बताये गए सूत्र को उलटाया और इन तीनो स्थितियों को विपरीत क्रम में रखा - समाधि, ध्यान, फ़िर धारणा। यह योग में गंभीर रूप से जुड़े लोगों के लिए एक बहुत ही मूल्यवान सूचना हो सकती है।

इस तरह जब मैंने संयम किया तो समग्र अस्तित्व मेरे अध्ययन में आ गया। जो मैंने अध्ययन किया वही आपके अध्ययन के लिए दर्शन-वाद-शास्त्र के रूप में "सूचना" प्रस्तुत कर दिया। समझना और समझाना मानव से ही होगा। किताब से समझना होगा नहीं। किताब से सूचनाएं मिलती हैं।

"अनुभव से अनुभव के लिए प्रेरणा दी जा सकती है।" यह जब मैं निर्णय कर पाया तो अनुभवगामी पद्दति बनी। पहले के अनुसार भी मैं कह सकता था - सब लोग समाधि करो, संयम करके ज्ञान हासिल करो। अनुभवगामी पद्दति ही अध्ययन विधि है। अनुभव-मूलक विधि से जो कुछ भी बताते हैं, उसका अर्थ बोध होने तक अध्ययन है। अध्ययन शब्द का मतलब इतना ही है। आचरण से लेकर दर्शन तक, और दर्शन से लेकर आचरण तक अध्ययन कराने की व्यवस्था दी। भाषा परम्परा की है। परिभाषाएं मैंने दी हैं। परिभाषा के अनुसार अध्ययन करने पर लोगों को बोध होगा। हर मनुष्य में अनुभव करने का माद्दा है। यह मानव का पुण्य रहा, मानव-जाति का अपेक्षा रहा, चिर-कालीन तृषा रहा - ऐसा मैं मानता हूँ।

- जीवन विद्या राष्ट्रीय सम्मलेन २००६, कानपुर में बाबा श्री नागराज शर्मा के उदबोधन पर आधारित।

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