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Sunday, June 7, 2009

अपने-पराये की मानसिकता ही अपराध-प्रवृत्ति है.

अपने-पराये की मानसिकता ही अपराध-प्रवृत्ति है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण है - सभी देशों की सीमा-रेखाओं पर तैनात फौजें। क्या काम है वहाँ पर? दोनों भू-खंडों के बीच में १०-१५ फुट की दूरी में जो दूसरे के क्षेत्र में प्रवेश करेगा, उसको मारेंगे! डंडे से लेकर, गोली-बारूद, प्रक्षेपात्र, atom bomb तक सब हथियार तैयार रखे रहते हैं। इन सब का प्रयोग वहाँ वैध माना गया है। यही अपने-पराये की मानसिकता छोटे स्तर पर परिवार-परिवार के बीच कटुता, समुदाय-समुदाय के बीच कटुता के रूप में दिखता है।

सभी देशों के संविधान मूलतः गलती को गलती से रोकने, अपराध को अपराध से रोकने, और युद्ध को युद्ध से रोकने के अर्थ में हैं। "अपराध करने से अपराध रुकेगा" - यह अपराध को वैध मानना हुआ कि नहीं? यह केवल हमारे देश की ही बात नहीं है। सभी देशों में ऐसा ही है। इस तरह धरती के सारे ७०० करोड़ लोग अपराध के भागीदार हो गए कि नहीं?

सह-अस्तित्व में ज्ञान संपन्न होने से हम अपने-पराये की मानसिकता से मुक्त होते हैं - फलतः अपराध-मुक्त होते हैं। मनुष्य जाति के अपराध-मुक्त हुए बिना धरती का स्वस्थ होना बनेगा नहीं। मनुष्य को धरती पर बने रहना है तो सम्पूर्ण मनुष्य-जाति को अपने-पराये की मानसिकता से मुक्त होना ही होगा। यह शिक्षा-विधि से सम्भव है।

- जीवन विद्या राष्ट्रीय सम्मलेन २००६, कानपुर में बाबा श्री नागराज शर्मा के उदबोधन पर आधारित।

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