अमरकंटक उस समय एक छोटा सा गाँव था। कुल आबादी - १५० लोग। वहाँ आने पर वहाँ के सभी लोग जैसे मेरे अभिभावक बन गए। फ़िर मैं वहाँ साधना करने की प्रवृत्ति बनाने लगा। अमरकंटक के बड़े-बुजुर्गों के नित्य-कर्मो को मैंने देखा। सवेरे नर्मदा में स्नान करने के बाद, घर में खाने-पीने के बाद, वही बीडी-सिगरेट-तम्बाकू का सेवन, फ़िर चौपड़ खेलना, ताश खेलना। ये उनकी पूरी दिनचर्या के काम को मैंने देखा। ऐसे बड़े-बुजुर्गों के पास मैं बैठता हूँ तो ये मुझे भी वही सब करने को कहेंगे। यदि मैं इसके लिए मना करता हूँ, तो मैं उनके लिए कुजात जो जाता हूँ! यदि मैं वही सब करता हूँ - तो मेरा साधना तो समझो हवा हो गया! अब क्या किया जाए? यहाँ पर रहा जाए या यहाँ से भागा जाए?
ऐसे में मेरी पत्नी ने सुझाया - तुम क्यों परेशान होते हो? उनको अपना काम करने दो, तुम अपना काम करो! तुम सवेरे से शाम तक साधना करो। तुम्हारे पास कोई आएगा नहीं, तुम किसी के पास जाना नहीं। यह सुन कर मैं बहुत बाग़-बाग़ हुआ। उसी के अनुसार मैंने साधना शुरू किया। १९४२ में मेरा विवाह हुआ था। १९५० में हम अमरकंटक आ गए थे। इन ८ वर्षों में मैं अपनी पत्नी के लिए अभिभावक जैसे रहा था। मेरी पत्नी १९५० से लेकर आज तक मेरे लिए अभिभावक है। इस सम्मानजनक सम्बन्ध को मैंने कैसे पहचाना, और वह मेरे लिए कैसे वरदान सिद्ध हुआ - यह आपको बताना चाहा। मेरी पत्नी की तपस्या ही है, जो मैं साधना कर पाया। नहीं तो मैं साधना नहीं कर पाता। मैं समझता हूँ, साधना करने के लिए कहीं न कहीं आत्मीयता पूर्ण सेवा आवश्यक है।
साधना में मैं पार पा गया। समाधि को मैंने देखा। समाधि में मुझको कोई ज्ञान नहीं हुआ। समाधि में क्या हुआ? समाधि में मेरी आशा-विचार-इच्छाएं चुप हो गयी।
चुप होने को ही ज्ञान कहते हों - तो इसको मैं क्या कहूं? "समाधि में जो ज्ञान होता है - वह अव्यक्त और अनिर्वचनीय होता है।" - ऐसा बताया गया था। उसके लिए उपमा दिया - जैसे गुड खाया हुआ गूंगा हो। इस पर मैंने पूछा - क्या गूंगे ही गुड खाते हैं? क्या बात करने वाले गुड नहीं खा सकते?
मेरी हजारों वन्दनाएँ यही हैं - समाधि में ज्ञान नहीं होता। मुझे तो नहीं हुआ। और किसी को हुआ हो तो उसका गवाही आज तक मुझको मिला नहीं। जिस-जिस के समाधिस्थ होने की बात थी, उन्होंने मेरी जिज्ञासा का उत्तर दिया नहीं।
आशा-विचार-इच्छा चुप हो जाने को मैंने ज्ञान नहीं माना। मुझे समाधि हुआ या नहीं - इसका गवाही कैसे दिया जाए? समाधि के बाद यदि संयम होता है, तो समाधि के होने की गवाही मिल जायेगी। विभुतिपाद में संयम के बारे में जो भी लिखा है, उसको पढ़ कर मुझे लगा वह अज्ञात को ज्ञात किया हुआ का गवाही नहीं है। कैवल्य-पाद को पढ़ा तो - वह पूरा रहस्य में ही फंसा हुआ है। संयम को मैंने अवश्य स्वीकारा, संयम विधि को थोड़ा बदला।
संयम करने पर जैसे मैं आपको अभी अध्ययन करा रहा हूँ, वैसे ही मैंने प्रकृति में पढ़ा। मैंने किताब से नहीं पढ़ा, प्रकृति से सीधा पढ़ा। मैं जो कुछ भी साहित्य रूप में प्रस्तुत किया हूँ, वह मेरा प्रकृति में पढ़ा हुए का मानव-सम्मुख अनुनय-विनय है।
क्यों मैंने मानव सम्मुख इसे प्रस्तुत किया? क्योंकि मैंने इसे सम्पूर्ण मानव-जाति के पुण्य का फल माना। इसी के साथ धरती के बीमार होने से इस प्रस्ताव की आवश्यकता का पता चल गया। इस आधार पर इस प्रस्ताव को मानव-जाति के अवगाहन के रूप में प्रस्तुत किया है। यदि धरती पर मानव-परम्परा को बने रहना है, तो मानव इस प्रस्ताव को अपनी मानसिकता में स्वीकारेगा और "सच्चाई" के साथ जियेगा।
सह-अस्तित्व "होने" के रूप में "सच्चाई" है। जीव-संसार, वनस्पति-संसार, और खनिज-संसार अपने "होने" के रूप में सच्चाई है, और वे अपने "होने" के अनुसार ही "रहते" हैं। मनुष्य का इस धरती पर "होना" सच्चाई है। मनुष्य "रहने" के रूप में सच्चाई को पकड़ा नहीं है। उस भाग को छुआ नहीं है। उस भाग को पकड़ने की आवश्यकता है। उसी भाग में प्रमाणित होंगे।
साधना, समाधि, संयम - हर व्यक्ति तो इसमें से गुजरेगा नहीं, इस कठिनाई से हर व्यक्ति तो जूझेगा नहीं। यह निर्णय लेने के बाद, संयम से मुझे जो प्राप्त हुआ, वह सबको दिया जा सकता है। संसार इसको अपना सकता है। संसार प्रमाणित हो सकता है। इन तीन बात पर यकीन करते हुए, मानव के सम्मुख इस प्रस्ताव को रखने की हिम्मत मैंने किया।
- जीवन विद्या राष्ट्रीय सम्मलेन, कानपुर २००६ में बाबा श्री नागराज शर्मा के उदबोधन पर आधारित।
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