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Sunday, June 28, 2009

एक करुण-कथा

मैंने कई बार आपके सामने "अनुसंधान" शब्द का प्रयोग किया है। मुझसे यहाँ पूछा जा रहा है - तुमको यह अनुसंधान करने की ज़रूरत कहाँ से आ गयी? मेरा अनुसन्धान के लिए प्रवृत्त होना एक "करुण-कथा" है। "करुण-कथा" का मतलब है - दिशा चाहते हुए भी दिशा-विहीन स्थिति में होना। यही करुण-कथा का मतलब है, जो मैं आपके सम्मुख रखता हूँ।

मेरी आयु जब ५ वर्ष रही होगी, तब मेरे सम्मुख हमारे घर आने वाले बड़े-बुजुर्ग दीर्घ-दंड प्रणाम करते रहे। एक दिन मेरे मन में यह आया - मैंने इनको क्या दे दिया? ये लोग क्यों मेरा सम्मान करते हैं? मेरी सारी करुण-कथा का बीज इतना ही है। उस समय मेरे इस प्रश्न का उत्तर मुझे मेरे बड़ों से नहीं मिला।

१०-११ वर्ष की आयु में मुझे पता लगा - लोग मेरे परिवार का सम्मान करते हैं, इसीलिए मेरा भी सम्मान करते हैं। यह पता लगना मेरी करुण-कथा की अगली सीड़ी बनी।

मैं सोचने लगा - वैदिक संस्कृति का सर्वोच्च सम्मान पाने वाले हमारे परिवार ने संसार को क्या दे दिया? उसका शोध करने पर पता चला - मेरे परिवार में हजारों वर्षों से हर पीढी में संन्यासी होते रहे हैं। उनमें से कई संन्यासी समाधि के लिए अपने ही हाथों से गड्ढा खोद कर, उसमें बैठ गए, अपने पर मिट्टी ढांप लिए, और मर गए। फ़िर लोग उस के ऊपर चबूतरा बना कर रखे थे। यह सब सुनने के बाद मैं सोचने लगा - ये संन्यासी लोग हमको क्या दे गए? सर्वोच्च सम्मान जो परिवार पाया हो, सर्वोच्च कोटि की श्रम-पद्दतियां जहाँ बनी हों, सर्वोच्च कोटि की सेवा विधि जिस परिवार में समाई हो - ऐसे परिपेक्ष्य में जब मैं इस तरह बात करने लगा, तो कैसा हुआ होगा - आप ही सोचिये? मेरे बड़े-बुजुर्गों को मेरा ऐसे सवाल करना उचित नहीं लगा। उन्होंने कहा - "तुम छोटा मुहँ, बड़ी बात करते हो!" मेरी आयु तब १८ वर्ष से कम ही रही होगी। मैंने उनसे पूछा - आप कुछ ऐसा बताइये जिससे मेरी बात छोटी हो जाए, या कुछ ऐसा बताइये जिससे मेरा मुहँ बड़ा हो जाए। मैं ऐसा अड्भंगा बात करना शुरू किया। यह और परेशानी का कारण हुआ।

उस समय रमण-मह्रिषी एक सम्माननीय व्यक्ति थे, मेरे बड़े-बुजुर्ग उनको समाधिस्थ पुरूष मानते थे। उनके एक शिष्य मद्रास से काव्य-कंठ गणपति नाम से थे, जिनका मेरे बुजुर्गों के साथ संपर्क रहा। उन्होंने सहमती दिया कि मुझे रमण-मह्रिषी के पास ले जाना चाहिए। अंततोगत्वा रमण-मह्रिषी के पास मुझको मेरे परिवार-जन ले गए। मैंने उनको अपना संकट बताया - हम जो किताबों में यह कहते हैं, ब्रह्म से जीव-जगत पैदा हुआ है, और अंत में कहते हैं - "ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या", तो क्या सत्य से मिथ्या पैदा हो सकता है? यह मैं पूछता हूँ तो कहते हैं - "छोटे मुहँ बड़ी बात"। अब मैं अपनी बात को कैसे छोटा बनाऊं, या अपने मुहँ को कैसे बड़ा करुँ?

रमण मह्रिषी ने कहा - "तुम्हारी जिज्ञासा का उत्तर आदमी-जात के पास नहीं है। तुमको समाधि में ही इसका उत्तर मिलेगा। संसार में कोई आदमी तुम्हारी इस जिज्ञासा का उत्तर देने योग्य नहीं है। तुम्हारे लिए समाधि में जाना ही एक मात्र रास्ता है।"

रमण मह्रिषी से मैंने यह नहीं पूछा - आपको समाधि हुआ या नहीं? क्यों नहीं पूछा? भय-वश। यदि वे कहते समाधि हुआ है - तो वे मेरे प्रश्न का उत्तर क्यों नहीं दे पाते हैं, यह पूछता। यदि वे कहते समाधि नहीं हुआ - तो मुझे समाधि होगा, मैं इस बात पर कैसे विश्वास करता? उन पर मैंने कोई प्रति-प्रश्न नहीं किया। उनकी आज्ञा को शिरोधार्य करके मैं चला आया।

यह मार्ग-दर्शन मुझको मिला। यही मेरी "करुण-कथा" का अन्तिम चरण भी है। २२ वर्ष की आयु में मुझे यह लक्ष्य और दिशा मिली। उस समय मैंने अपनी आजीविका के लिए जो पेंसिल फैक्ट्री लगाया था, और जो कुछ भी लेन-देन था उसको पूरा किया - और अंततोगत्वा हम अमरकंटक पहुँच गए। यह मेरी करुण-कथा का सार-संक्षेप है।

- जीवन विद्या राष्ट्रीय सम्मलेन २००६ में बाबा श्री नागराज शर्मा के उदबोधन पर आधारित

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