सत्य समझ में आने के बाद पता चलता है - "सह-अस्तित्व स्वरूपी सत्य से मुक्त कोई वस्तु है ही नहीं।" यह आदर्शवादी विचारधारा से भिन्न बात है - जिसमें कहा सत्य अलग ही रहता है, जगत अलग ही रहता है। सत्य को "खोजने" की अभ्यास, तप विधियां बता दी। सत्य को जगत से अलग ही बता दिया - उसी में उनके हाथ-पैर टूट गए। "सत्य जगत से अलग ही कोई चीज है" - कोई इस बात को समझा नहीं पाता है, न प्रमाणित कर पाता है। केवल इसको "कहने" मात्र से यह प्रभावित होता नहीं है।
आदर्शवाद ने संवेदनाओं को समाप्त करने के लिए बहुत सारे उपदेश, और अभ्यास-विधियां बताई गयी। समाधि से पहले कोई संवेदनाएं नियंत्रित होती नहीं हैं। समाधि सबको मिलने वाला नहीं है। इस तरह सबके लिए संवेदनाएं नियंत्रित होने के लिए कोई उत्तर आदर्शवाद के पास नहीं है। इसीलिए हम अराजकता के शिकार हो गए। काफी क्षत-विक्षत हो चुके हैं।
पहले इन आदर्शवादी भाषणों के प्रति लोगो की आस्थाएं होती थी। अब आस्था होती नहीं है। अब उन भाषणों पर प्रश्न करना बनता है। "इसको कैसे प्रमाणित किया जाए? इसको कैसे समझा जाए?" असभ्य तरीके से भी लोग प्रश्न करते हैं - "यह तो बकवास है, इसका रोटी-कपड़ा-मकान से कोई लेन-देन नहीं है।" ये दोनों ध्वनियां हम सुनते ही हैं। आज के समय में आस्थावाद स्थापित होने वाला नहीं है। प्रमाण ही स्थापित होगा। प्रमाण के लिए आपको अपनी सौजन्यता का प्रयोग करना पड़ेगा। प्रमाण के लिए आपकी सौजन्यता ही जिम्मेदार है, और कोई जिम्मेदार नहीं है।
सत्य को समझना = सह-अस्तित्व स्वरूपी अस्तित्व को समझना। अस्तित्व क्यों है, और कैसा है - यह समझ में आना। कैसा है? - का स्वरूप आपको बताया। क्यों है? - का उत्तर है, प्रकट होने के लिए है। विगत में आदर्शवाद ने कहा था - "ब्रह्म से सब प्रकट है।" यहाँ कह रहे हैं - "ब्रह्म में सब प्रकट है।" व्याकरण-विधि से देखें तो ज्यादा दूर नहीं हैं - बस "में" और "से" का फर्क है। ब्रह्म में सब प्रकट है - इससे "सम्पृक्तता" इंगित है। सम्पृक्तता का मतलब है - जगत डूबा है, भीगा है, घिरा है।
सत्य को जो मैं समझा उसको समझाने के लिए मैंने भाषा का प्रयोग किया। भाषा परम्परा की है। परिभाषाएं मैंने दी हैं। जैसे - "धर्म" एक शब्द है। उसके लिए विगत में आदर्शवाद ने परिभाषा दिया - "धार्यतेति सः धर्मः"। "धारणा" का व्याख्या देते हुए कहा - जिसको पहना जा सकता है, ओढा जा सकता है, उतारा भी जा सकता है। गीता में भी कहा गया है - "सर्वधर्मान परिताज्या मामेकम शरणम रजा"। मतलब - सभी धर्मो को त्याग दो! इस ढंग से हम कहाँ पहुँच गए? धर्म को पहना भी जा सकता है, ओढा भी जा सकता है, और उतारा भी जा सकता है! इसका मतलब - "धर्मान्तरण" हो सकता है! अभी जो "धर्मान्तरण" हो रहा है - उसका आधार यही है।
धर्म वास्तव में क्या है? जिससे जिसका विलगीकरण न हो, वही उसका धर्म है। पदार्थावस्था अस्तित्व-धर्मी है। प्राणावस्था अस्तित्व-सहित पुष्टि धर्मी है। जीवावस्था अस्तित्व-पुष्टि सहित आशा-धर्मी है। मानव ज्ञान-अवस्था में होते हुए, अस्तित्व-पुष्टि-आशा सहित सुख-धर्मी है। सुख की अपेक्षा से मानव को अलग नहीं किया जा सकता।
समाधान = सुख। समाधान कैसे होता है? ज्ञान के अनुरूप फल-परिणाम होने पर समाधान होता है। यह अखंड-समाज सार्वभौम व्यवस्था सूत्र-व्याख्या में जीने से होता है।
- जीवन विद्या राष्ट्रीय सम्मलेन २००६, कानपुर में बाबा श्री नागराज शर्मा के उदबोधन पर आधारित।
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