सम्बन्ध क्यों हैं? व्यवस्था में जीने के लिए सम्बन्ध हैं। और कोई प्रयोजन नहीं है संबंधों का! संबंधों में ही व्यवस्था में होने-रहने की गवाही मिलती है। संबंधों को छोड़ कर मनुष्य के व्यवस्था में होने-रहने की कोई गवाही नहीं मिलती।
सम्बन्ध पूर्णता के अर्थ में अनुबंध हैं। अनुबंध का मतलब प्रतिज्ञा है। पूर्णता के अर्थ में ही सारे सम्बन्ध हैं। चाहे वह माँ-बच्चे का सम्बन्ध हो, या बंधू-बांधव का सम्बन्ध हो। सह-अस्तित्व की समझ मूल में रहने पर ही संबंधों में तृप्ति की निरंतरता बन पाती है। अभी जो है, थोड़े समय तक सम्बन्ध निभा, फ़िर टूट गया - यह परेशानी सह-अस्तित्व की समझ के बाद दूर हो जाती है। सामाजिकता में परेशानी भी यही है। पहले दिन हम दूसरे के साथ जो सम्बन्ध को पहचाना, वैसे वह निभ नहीं पाना। सह-अस्तित्व में समझ पूर्वक सम्बन्ध को सटीक पहचानने की योग्यता आती है। इस तरह समझदारी पूर्वक संबंधों को सटीक पहचानने पर सम्बन्ध निभ पाते हैं, उनमें तृप्ति की निरंतरता बनती है। इस तरह अखंड-समाज और सार्वभौम-व्यवस्था की सूत्र-व्याख्या हो जाती है।
न्याय है - संबंधों की पहचान, मूल्यों का निर्वाह, मूल्यांकन, और उभय-तृप्ति। संबंधों में न्याय पूर्वक जीना ही मानव के व्यवस्था में जीने का पहला घाट है।
- जीवन विद्या राष्ट्रीय सम्मलेन २००६, कानपुर में बाबा श्री नागराज शर्मा के उदबोधन पर आधारित
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