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Saturday, June 6, 2009

ज्ञान, विवेक, विज्ञान और उपकार

अपने-पराये की मानसिकता ही अपराध-प्रवृत्ति है। यदि मनुष्य-जाति मनः-स्वस्थता हासिल करता है, तो अपने-पराये की दीवारें उसी समय से समाप्त हो जाती हैं। समुदाय-समुदाय के बीच जो कटुता है, युद्ध का जो झंझट है - उससे मुक्ति पाना बनता है। मनः-स्वस्थता समझदारी से आता है। "हम सह-अस्तित्व में जी रहे हैं" - यह है समझदारी! सह-अस्तित्व है - व्यापक वस्तु में जड़-चैतन्य प्रकृति का संपृक्त होना और रहना। यह ज्ञान हर मनुष्य को होना है। यह ज्ञान यदि सुदृढ़ होता है, तो उसके आधार पर हम विवेक और विज्ञान को पहचान सकते हैं।

विवेक में "जीवन का अमरत्व" समझ में आता है। विगत में "ज्ञान" को अव्यक्त और अनिर्वचनीय बता कर समझाना छूट गया था, साथ ही जीवन को समझाना नहीं बन पाया था - उसको मैं पा गया। मैं जीवन को समझाने में समर्थ हूँ, पारंगत हूँ, प्रमाणित हूँ - यह मैं आपके सामने सत्यापित कर रहा हूँ। जीवन का अमरत्व जब समझ में आता है तो मरने-कटने का भय समाप्त हो जाता है। मनुष्य के पास भय तीन ही प्रकार से है - मृत्यु-भय (प्राण-भय), धन-भय, और मान-भय। "मान-भय" है - हम जिस हैसियत या तबके में रहते हैं, वह छिन न जाए। "धन-भय" है - हमारा संग्रह, सम्पदा हमसे छिन न जाए। इन तीनो प्रकार के भय से हम विवेक पूर्वक मुक्त हो जाते हैं।

ज्ञान और विवेक के बाद विज्ञान संपन्न होने की बारी आती है। विज्ञान संपन्न होने पर समाधान-समृद्धि पूर्वक जीने की अर्हता आती है। यदि हम ज्ञान और विवेक सम्मत विज्ञान से संपन्न होते हैं, उसके अनुरूप विचार और योजना के क्रियान्वयन में लगते हैं - तब समाधान-समृद्धि पूर्वक जीने की योग्यता बन जाती है।

इस तरह - ज्ञान पूर्वक अपने-पराये से मुक्ति, विवेक पूर्वक भय मुक्ति, और विज्ञान पूर्वक समाधान-समृद्धि पूर्वक जीने की योग्यता बन जाती है। ये तीनो बात आपके गले से उतरता है तो यह मानव-परम्परा के लिए एक बहुत भारी देन है। यदि यह आपके द्वारा ग्रहण नहीं होता है तो मानव-परम्परा के लिए कोई देन नहीं है। ग्रहण होता है या नहीं, इस बात को मैंने छोटी-छोटी जगह पर आजमाया - उसी आधार पर इस सम्मलेन में मुझे यह बात कहने को कहा गया है। मेरे बोलने मात्र से हम सार्थक हो गए, ऐसा नहीं है। आप में जब यह स्वीकृत होता है - तभी यह सार्थक है।

इस तरह अपने-पराये से मुक्त, भय-मुक्त, और समाधान-समृद्धि पूर्वक जीने पर उपकार-प्रवृत्ति का उदय होता है। समाधान-समृद्धि से कम में कोई उपकार नहीं करेगा। अभी तक यह मानते रहे - किसी भूखे को खाना दे दिया तो उपकार कर दिया। किसी के पास कपड़ा नहीं है, उसको कपड़ा दे दिया, तो उपकार हो गया। यह ग़लत हो गया। यह उपकार नहीं है। यह कर्तव्य है। उसी तरह हमारा अडोस-पड़ोस, गाँव, धरती के साथ कर्तव्य बना रहता है। कर्तव्य और उपकार में फर्क है। उपकार में दूसरे को अपने जैसा बनाने की बात होती है। जैसे हम समाधानित हैं, समृद्ध हैं - वैसा ही दूसरे को बना देने से उपकार होता है। उसके पहले कोई उपकार नहीं होता - यह मेरी घोषणा है। यह मेरा अनुभव है। उपकार करने के क्रम में ही मैं यहाँ आपके सम्मुख प्रस्तुत हूँ।

उपकार करने में कोई बंधन या भ्रम नहीं होता। मेरे यह बोलने मात्र से उपकार नहीं हुआ। आपकी स्वीकृति पूर्वक उसमें आपकी प्रतिबद्धता होने पर ही उपकार सफल हुआ। वैसे ही आप दूसरे व्यक्ति पर उपकार कर सकते हैं। इस ढंग से उपकार का परम्परा बनता है - जैसे दीप से दीप जलते हैं! उपकार-विधि से ही मानवीय-परम्परा बनती है। दूसरे किसी विधि से हम मानवीय-परम्परा बना नहीं पायेंगे।

- जीवन विद्या सम्मलेन २००६ कानपुर में बाबा श्री नागराज शर्मा के उदबोधन पर आधारित

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