मनुष्य-जाति के इतिहास में अभी तक जो भी प्रयास हुए, वे उसको समझदारी के घाट पर पहुंचाने में असमर्थ रहे। पहले आदर्शवाद ने "आस्था" या मान्यता के आधार पर भक्ति-विरक्ति का रास्ता दिखलाया। उसके बाद भौतिकवाद आया, जिसने तर्क का रास्ता खोल दिया। तर्क-संगत विधि से आस्था टिक नहीं पायी तो सुविधा-संग्रह के चक्कर में हम आ गए। अभी ज्ञानी-अज्ञानी-विज्ञानी तीनो सुविधा-संग्रह के दरवाजे पर भिखारी बने खड़े हैं। कोई आदमी इससे नहीं बचा। धरती पर मनुष्य के अपने को समझदार मानने के बाद मनुष्य का गति आज तक इतना ही हुआ है।
सह-अस्तित्व-वादी ज्ञान इस दरवाजे के बाहर है। और जो कुछ भी रास्ते हैं, सुविधा-संग्रह दरवाजे की ओर ही ले जाते हैं। आप चाहे कुछ भी कर लो! सह-अस्तित्व-वादी विधि से जीने का तरीका है - समाधान समृद्धि पूर्वक परिवार में जीना। फ़िर समाधान-समृद्धि-अभय पूर्वक समाज में जीना। फ़िर समाधान-समृद्धि-अभय-सह-अस्तित्व पूर्वक सार्वभौम-व्यवस्था में जीना।
अब आप-हम को तय करना है, समाधान-समृद्धि पूर्वक परिवार में जीना है - या सुविधा-संग्रह के दरवाजे पर भिखारी बने खड़े ही रहना है?
हर व्यक्ति को अपने-अपने में इसके लिए निर्णय लेने की आवश्यकता है। एक व्यक्ति के निर्णय लेने भर से काम नहीं चलेगा।
- जीवन विद्या राष्ट्रीय सम्मलेन २००६, कानपुर में बाबा श्री नागराज शर्मा के उदबोधन पर आधारित
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