अभी तक मनुष्य जीव-चेतना में जिया है। जीव-चेतना में जीते हुए भी मनुष्य ने जीवों से ज्यादा अच्छा जीने का प्रयास किया। उसी क्रम में मनुष्य ने आहार, आवास, अलंकार, दूर-श्रवण, दूर-गमन, और दूर-दर्शन संबन्धी वस्तुओं का इन्तेजाम कर लिया। मानव की परिभाषा है - मनाकार को साकार करने वाला, और मनः स्वस्थता को प्रमाणित करने वाला। मनाकार को साकार करने में मनुष्य सफल हो गया। मनः स्वस्थता को प्रमाणित करने में मनुष्य सफल नहीं हो पाया। मनः स्वस्थता को प्रमाणित करने के लिए अथक प्रयास ज़रूर किए। योग से, अभ्यास से, समाधि से प्रयत्न कर करके हम थक चुके हैं, क्षत-विक्षत हो चुके हैं - किंतु मनः स्वस्थता को प्रमाणित करने में हम सर्वथा असफल रहे। मनः स्वस्थता को हम कैसे उपलब्ध हो सकते हैं, उसका हम यहाँ जिक्र करना चाहते हैं। वह एक सूचना ही होगी। उसके बाद अध्ययन करना, समझना अपने-अपने बलबूते पर ही होगी। अध्ययन करने के लिए मध्यस्थ-दर्शन का पूरा साहित्य उपलब्ध है। इस आश्रम में, और कुछ और आश्रमों में उसका अध्ययन कराया जाता है।
मानव-परम्परा में दो लक्ष्य पाया जाता है - मानव लक्ष्य और जीवन लक्ष्य। मानव-लक्ष्य और जीवन-लक्ष्य दोनों प्रमाणित होना है। इसमें मैंने जो अध्ययन किया, समझा, जिया, और प्रमाणित किया - वह है, मानव-लक्ष्य प्रमाणित होता है तो जीवन-लक्ष्य भी प्रमाणित होता है। दूसरे - जीवन-लक्ष्य पूरा होता है तो मानव-लक्ष्य भी पूरा होता है। जीवन सुख, शान्ति, संतोष, और आनंद को अनुभव करना चाहता है। यही जीवन-लक्ष्य है। अध्ययन द्वारा सह-अस्तित्व को समझने से, जीवन को समझने से, मानवीयता पूर्ण आचरण को समझने से समाधान होता है। समाधान से सुख होता है। समाधान मानव-लक्ष्य है। समाधान, समृद्धि, अभय, और सह-अस्तित्व मानव-लक्ष्य है।
मानव को ज्ञान-अवस्था की इकाई के रूप में मैंने पहचाना। ज्ञान को भी मैंने पहचाना। ज्ञान यदि मानव को होता है, तो संज्ञानीयता में संवेदनाएं नियंत्रित होती हैं। मानव अभी तक शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध इन्द्रियों को तृप्ति देने के लिए सकल कुकर्म कर दिया। सभी अपराधों को वैध मान लिया। उसके बाद भी संवेदनाओं में तृप्ति की निरंतरता नहीं मिली। संज्ञानीयता में संवेदनाएं नियंत्रित होती हैं - यह मैंने देखा है, जिया है, और उसको प्रमाणित किया है।
हर व्यक्ति मूलतः संयत रहना चाहता है। बच्चे से बूढे तक आप अध्ययन करें तो आप पायेंगे - हर व्यक्ति में कहीं न कहीं संयमता की अपेक्षा बनी हुई है। भले ही वह घोर अराजकता में क्यों न जीता हो! प्रख्यात डाकुओं से लेकर, महान झूठ-खोरों, सभी प्रकार के कुकर्म करने वाले लोगों के साथ संभाषण करके मैं इस अन्तिम-निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ। सज्जनों में तो संयमता की अपेक्षा है ही। अभी तक संयमता की निश्चित-विधि, निश्चित-प्रक्रिया, निश्चित-पहचान, निश्चित-मूल्यांकन, और उसका सम्मान हम नहीं कर पाये थे। संयमता को पाना जरूरी है। समाज की सम्पूर्ण संरचना संवेदनाएं नियंत्रित रहने या अनियंत्रित रहने पर निर्भर है। यदि हम संयमता को पहचानते हैं, समझते हैं, जीते हैं, उसमें पारंगत होते हैं - तब हम "अखंड-समाज और सार्वभौम-व्यवस्था" को सोचने योग्य होते हैं। उससे पहले एक भी आदमी "अखंड-समाज सार्वभौम-व्यवस्था" को नहीं सोच पायेगा - यह आप मुझसे लिखवा लो! यदि यह बात आपके गले उतरती है तो संज्ञानीयता में पारंगत होने की आपकी इच्छा बलवती होती है।
सभी मनुष्यों में "मानवत्व" नाम की एक चीज है - जो सोया रहता है, उसको जगाने की ज़रूरत है। जो भूला रहता है, उसको स्मरण दिलाने की ज़रूरत है। जो समझा नहीं रहता है, उसको समझाने की ज़रूरत है। इन तीन काम में लगने की ज़रूरत है। कौन लगेगा इसमें? जो संज्ञानीयता में पारंगत है, जिसकी संवेदनाएं नियंत्रित हो चुकी हैं, अखंड-समाज सार्वभौम-व्यवस्था की सूत्र-व्याख्या को जो पा चुका है - वही स्वयं को प्रमाणित करने के क्रम में इस काम में लगेगा। इससे कम दाम में यह होने वाला नहीं है। योग विधि से, अभ्यास विधि से हम बहुत सोचे हैं, कहे हैं - उसमें यह आशय तो व्यक्त होता है, किंतु वह प्रमाण में होना, परम्परा में होना, और जीना - इस जगह में हम आए नहीं! इन जगहों पर आने की आवश्यकता है। क्यों आवश्यकता है? इसका यही उत्तर है - क्योंकि धरती बीमार हो गयी है। मनुष्य की अपराध-प्रवृत्ति से ही यह धरती बीमार हुई है। अपराध-प्रवृत्ति से मुक्ति के लिए अखंड-समाज सार्वभौम-व्यवस्था सूत्र-व्याख्या के पास आना ही होगा।
"अखंड-समाज" का मतलब है - मानवत्व का जागृति स्वरूप में प्रमाणित होना। मानव संज्ञानीयता संपन्न हो कर नियंत्रित संवेदनशीलता पूर्वक व्यवस्था में जीता है। "संज्ञानीयता" से आशय है - सह-अस्तित्व दर्शन ज्ञान, जीवन-ज्ञान, और मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान से संपन्न होना। ज्ञान से विवेक आता है - जो है, शरीर का नश्वरत्व, जीवन का अमरत्व, और व्यवहार के नियम। उसके बाद विज्ञान के पास आते हैं - मानव-लक्ष्य (समाधान, समृद्धि, अभय, सह-अस्तित्व) और जीवन-लक्ष्य (सुख, शान्ति, संतोष, आनंद) के लिए दिशा निर्धारित करने के लिए। विज्ञान है - काल-वादी, क्रिया-वादी, और निर्णय-वादी ज्ञान।
- जीवन विद्या राष्ट्रीय सम्मलेन २००६, कानपुर में बाबा श्री नागराज शर्मा के उदबोधन से
No comments:
Post a Comment