व्यापक को आप प्रकृति की इकाइयों की परस्परता में दूरी के रूप में पहचान सकते हैं। व्यापक में संपृक्त जड़-चैतन्य प्रकृति के स्वरूप में सह-अस्तित्व नित्य वर्तमान है। व्यापक वस्तु को आप "ईश्वर", "ज्ञान", "परमात्मा", "ब्रह्म", "शून्य" - ये सब नाम दे सकते हैं। इसको मैंने नाम दिया है - "साम्य ऊर्जा"।
व्यापक में हम "डूबे" हुए हैं - यह समझ में आता है। इससे हम "घिरे" हुए हैं - यह भी समझ में आता है। उसके बाद व्यापक में हम "भीगे" हुए हैं - यह समझ में आना मुख्य मुद्दा है। इस व्यापक वस्तु में आप-हम जो ज्ञानी, अज्ञानी, विज्ञानी कहलाते हैं, वे सभी भीगे हैं - यह समझ में आना मुख्य मुद्दा है। व्यापक वस्तु पारगामी है। पत्थर-शिला-धातुओं में भी, वनस्पतियों में भी, जीव-जानवरों में भी, मनुष्यों में भी, हर परमाणु, अणु, अणु-रचित रचना में भी - यह आर-पार है। व्यापक में भीगे होने के कारण हर वस्तु ताकतवर है - या ऊर्जा-संपन्न है।
यह ऊर्जा-सम्पन्नता जड़-वस्तुओं (भौतिक-रासायनिक वस्तुओं) में चुम्बकीय-बल के रूप में है। यही ऊर्जा-सम्पन्नता चैतन्य-वस्तु (जीवन) में जीने की आशा से शुरू होती है। इसके बाद यही ऊर्जा-सम्पन्नता चैतन्य वस्तु द्वारा विचार, इच्छा, बोध, और अनुभव के रूप में प्रकट होती है।
पदार्थ-अवस्था और प्राण-अवस्था साम्य-ऊर्जा सम्पन्नता वश क्रियाशील है, आचरणशील है। जीव-अवस्था में जीवन शरीर-वंश के अनुसार कार्य करता है। गाय का बच्चा गाय के वंश के अनुसार काम करना सीख कर ही पैदा होता है। बिच्छु का बच्चा बिच्छु के वंश के अनुसार काम करना सीख कर ही पैदा होता है। इसी ढंग से हर जीव-जानवर की बात है। इसके बाद आता है - मनुष्य। मनुष्य समझदारी के अनुसार जीना चाहता है। समझदारी के दो भाग हैं - एक, मनाकार को साकार करना। दूसरा, मनः-स्वस्थता को प्रमाणित करना। इसमें से मनाकार को साकार करने का भाग मनुष्य ने प्रमाणित कर लिया। मनः-स्वस्थता का भाग अभी तक नहीं हुआ। इतनी सी बात है। यही एक ईंट खिसका है। दूसरा ईंट मजबूत है!
मनाकार को साकार करने का क्रम रहा - आहार से आवास, आवास से अलंकार, अलंकार से दूर-श्रवण, दूर-श्रवण से दूर-गमन, दूर-गमन से दूर-दर्शन। इससे ज्यादा की जरूरत मुझे तो महसूस होता नहीं है। होता होगा तो आप लोग बताएँगे! मनाकार को साकार करने में मनुष्य "यांत्रिक विधि" से सफल हुआ है। घर बनाना ("आवास") एक यांत्रिक विधि है। इस तरह वस्तुओं (जैसे - मिट्टी, पत्थर, लोहा) को जोड़ कर रचना स्वरूप देने की सामर्थ्य मनुष्य के पास आयी। इसी क्रम में मनुष्य ने आहार, आवास, अलंकार, दूर-श्रवण, दूर-गमन, दूर-दर्शन संबन्धी वस्तुओं का इन्तेजाम कर लिया।
सभी वस्तुओं का इन्तजाम करने के बाद भी हम परेशान क्यों हैं? समस्या से घिरे क्यों हैं? इसका कारण ढूँढने जाते हैं - तो पता चलता है, मनुष्य की सारी समस्याएं मनुष्य के साथ ही हैं। पत्थर, पेड़-पौधे, और जीव-जानवरों के साथ मनुष्य को कोई समस्या नहीं है।
मनुष्य के साथ समस्या होने का कारण मनः-स्वस्थता का अभाव है। मनः-स्वस्थता "समाधान" के रूप में आता है, फ़िर "प्रमाण" के रूप में आता है, फ़िर "जागृत-परम्परा" के रूप में आता है। मनः-स्वस्थता ही जागृत-परम्परा का आधार बनेगा। मनाकार को साकार करना जागृत-परम्परा का आधार बनेगा नहीं। मनः-स्वस्थता को प्रमाणित करने के लिए समझदारी (सह-अस्तित्व में अनुभव) एक मात्र रास्ता है। दूसरा कोई रास्ता नहीं है। ज्ञान से विवेक, विवेक से विज्ञानं, विज्ञानं से योजना, योजना से कार्य, कार्य से फल-परिणाम। फल-परिणाम पुनः ज्ञान के अनुरूप होने पर हम समाधानित हुए, नहीं तो हम कोई समाधानित नहीं हुए। इतनी छोटी सी बात के लिए हम हजारों वर्षों से परिक्रमा किए जा रहे हैं, पर पाये नहीं हैं। हम कितने भाग्यवान हैं, या अभागे हैं - आप ही सोच लीजिये!
- जीवन-विद्या राष्ट्रीय सम्मलेन २००६, कानपुर में बाबा श्री नागराज शर्मा के उदबोधन से
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Great article....
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