भ्रम में जीता हुआ आदमी अपने सुखी होने का कोई प्रमाण प्रस्तुत नहीं कर पाता है। इसलिए ऐसे आदमी का जड़ ही हिला रहता है। कितना भी कोई पैसे वाला हो, ऊंचे पद पर हो, बलशाली हो - भ्रमित आदमी अपने सुखी होने का प्रमाण प्रस्तुत नहीं कर पाता। यही कारण है - जागृति के प्रमाण के सामने आने पर भ्रम में जीते हुए आदमी को लगता है, जैसे उसकी जड़ ही उखड गयी हो!
भ्रम से बनी हुई जितनी भी स्वीकृतियां हैं - वे भय और प्रलोभन के रूप में ही हैं। भ्रम का कार्य-रूप है - भय और प्रलोभन। भ्रमित अवस्था में आप कुछ भी करें - उसके मूल में भय और प्रलोभन ही है। नौकरी और व्यापार के मूल में भय और प्रलोभन की जड़ है या नहीं? भय और प्रलोभन को छोड़ कर न नौकरी किया जा सकता है, न व्यापार किया जा सकता है। "हमको दाना-पानी मिलेगा या नहीं, हम भूखे तो नहीं मर जायेंगे?", "हमको लोग इतना मान देते हैं - वह नहीं रहेगा तो हम क्या करेंगे?" - इन्ही सब भय के मारे हम व्यापार करते हैं, या नौकरी करते हैं। चाहे कैसी भी नौकरी हो - उसका यही हाल है। चाहे कैसा भी व्यापार हो - उसका यही हाल है। यही विवशता है। विवशता मानव को स्वीकार नहीं है। इसीलिये भय और प्रलोभन की जड़ हिलती रहती है।
भय और प्रलोभन का कोई सार्वभौम मापदंड नहीं बन पाता। नौकरी और व्यापार का इसीलिये कोई universal standard बन नहीं पाता है। उसका स्वरुप बदलता ही रहता है। आज जिस प्रलोभन से नौकरी करते हैं, कल उससे काम नहीं चलता। नौकरी और व्यापार के अनिश्चित और परिवर्तनशील लक्ष्य होते हैं। कोई उन परिवर्तनशील और अनिश्चित लक्ष्यों तक पहुँच गया हो, और सुखी होने का प्रमाण प्रस्तुत कर दिया हो - ऐसा न हुआ है, न आगे होने की संभावना है।
मध्यस्थ-दर्शन से निकला - जागृति का सार्वभौम मापदंड है समाधान और समृद्धि। यह निश्चित लक्ष्य है। यह हर किसी को मिल सकता है। निश्चित लक्ष्य के लिए जब हम सही दिशा में प्रयास करें - तो वह सफलता तक पहुंचेगा ही।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)
भ्रम से बनी हुई जितनी भी स्वीकृतियां हैं - वे भय और प्रलोभन के रूप में ही हैं। भ्रम का कार्य-रूप है - भय और प्रलोभन। भ्रमित अवस्था में आप कुछ भी करें - उसके मूल में भय और प्रलोभन ही है। नौकरी और व्यापार के मूल में भय और प्रलोभन की जड़ है या नहीं? भय और प्रलोभन को छोड़ कर न नौकरी किया जा सकता है, न व्यापार किया जा सकता है। "हमको दाना-पानी मिलेगा या नहीं, हम भूखे तो नहीं मर जायेंगे?", "हमको लोग इतना मान देते हैं - वह नहीं रहेगा तो हम क्या करेंगे?" - इन्ही सब भय के मारे हम व्यापार करते हैं, या नौकरी करते हैं। चाहे कैसी भी नौकरी हो - उसका यही हाल है। चाहे कैसा भी व्यापार हो - उसका यही हाल है। यही विवशता है। विवशता मानव को स्वीकार नहीं है। इसीलिये भय और प्रलोभन की जड़ हिलती रहती है।
भय और प्रलोभन का कोई सार्वभौम मापदंड नहीं बन पाता। नौकरी और व्यापार का इसीलिये कोई universal standard बन नहीं पाता है। उसका स्वरुप बदलता ही रहता है। आज जिस प्रलोभन से नौकरी करते हैं, कल उससे काम नहीं चलता। नौकरी और व्यापार के अनिश्चित और परिवर्तनशील लक्ष्य होते हैं। कोई उन परिवर्तनशील और अनिश्चित लक्ष्यों तक पहुँच गया हो, और सुखी होने का प्रमाण प्रस्तुत कर दिया हो - ऐसा न हुआ है, न आगे होने की संभावना है।
मध्यस्थ-दर्शन से निकला - जागृति का सार्वभौम मापदंड है समाधान और समृद्धि। यह निश्चित लक्ष्य है। यह हर किसी को मिल सकता है। निश्चित लक्ष्य के लिए जब हम सही दिशा में प्रयास करें - तो वह सफलता तक पहुंचेगा ही।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)
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