हमारे पूर्वजों ने - ऋषि, मह्रिषी, सिद्ध, महापुरुषों ने - अनेक तरह की "अभ्यास विधियां" सुझाई जिसमें "करके समझो!" वाली बात को प्रस्तावित किया गया। इन अभ्यास-विधियों को "तप" माना। "तप" के लोकसुलभ होने का कोई रास्ता वे निकाल नहीं पाये।
अब उनके विकल्प में यहाँ मेरा प्रस्ताव है - "समझ के करो!"
इससे trial and error की कथा समाप्त हो गयी। trial and error वाला मार्ग uneconomical भी हो सकता है। "समझ के करो" का मार्ग economical है।
"समझ के करो" वाले मार्ग में "छोड़ने-पकड़ने", "त्याग-वैराग्य" का कोई झंझट ही नहीं है। पहले समझ लो, फ़िर decide करो - क्या छोड़ना है, क्या पकड़ना है। समझने के बाद क्या आवश्यक है, क्या अनावश्यक है - यह स्वयं में विश्लेषित हो जाता है। आवश्यक को पकड़ना, या पकड़े रहना होता है। अनावश्यकता को छोड़ना होता है। "त्याग" की परिभाषा ही है - "अनावश्यकता का विसर्जन"।
तर्क विधि से यह प्रस्ताव पूरा पड़ता है। व्यवहारिक विधि से इसके पूरा पड़ने के लिए आपको इसे समझना ही पड़ेगा। और दूसरा कोई रास्ता नहीं है। यदि समझ में आ गया तो आपसे छूटने वाली कोई बात नहीं है। यदि समझ में आ गया है - तो आपसे कुछ miss क्यों होगा?
"समझ" शब्द स्वयं (जीवन) में जागृति हो जाने को ही इंगित करता है। उससे पहले "सुनी हुई बात" ही है।
समझ "ज्यादा" और "कम" की उपाधियों से मुक्त है। "समझे हैं" या "नहीं समझे हैं" - इतना ही है।
सह-अस्तित्व स्वरूपी अस्तित्व को समझना, और जीवन को समझना। ये दोनों यदि समझ में आता है, तो बाकी सब उससे अपने आप निकल आता है।
दृष्टा समझ में आने पर दृश्य स्पष्ट होता है। जीवन ही दृष्टा है। जीवन ४.५ क्रिया में कितने भाग का दृष्टा है, और १० क्रिया में कितने भाग का दृष्टा है - यह मध्यस्थ-दर्शन में स्पष्ट किया गया है। ४.५ क्रियाओं द्वारा जीवन संवेदनाओं का दृष्टा रहता है। १० क्रिया के साथ जीवन सह-अस्तित्व में दृष्टा है।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)
2 comments:
Dear Rakesh,
These articles which are the words coming straight from Baba...reinforce my imagination and thoughts about certain things and some times makes me think even further and clarify myself. Every day , the very first thing I do is go through these articles. Thanks for writing these.
Regards,
Gopal.
Thanks Gopal...
It's been about 5 years since I came in contact with Nagraj ji. It's not that I have "understood" what he has to say... But I felt, that I should be conveying to others what he has to say - while I make progress with understanding this. Your interest in studying these posts, only reconfirms my rationale for sharing my dialogues with him on this blog. The transcripting these dialogues is beneficial for me also for my understanding. It's a win-win!
best regards,
Rakesh...
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