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Thursday, August 13, 2009

भ्रम का स्वरूप

अपराध भ्रम-वश ही होता है।

मानव ही भ्रमित होकर अपराध करता है, और समस्याओं को जनित करता है।

समस्या यदि मानव-जाति तक ही सीमित रहता तो कोई परेशानी नहीं था। मानव जाति द्वारा जनित समस्याएं जब धरती को ही बीमार कर दिया - तो हम सोच रहे हैं। धरती बीमार होने के कारण मानव-जाति में भ्रम-मुक्ति "आवश्यक" हो गयी है। इस "आवश्यकता" को इंगित कराने का हम प्रयास कर रहे हैं। यदि मानव-परम्परा को निरंतर बने रहने की आवश्यकता समझ में आती है तो उसका भ्रम-मुक्त होने के लिए प्रयास करना भावी हो जाता है। यदि मिटने का ही मन बना लिया है तो मिट कर ही रहे ! उसके लिए तो पूरी तैय्यारी हो चुकी है।

जीव-चेतना में संवेदनाओं को राजी करने के क्रम में "अच्छा लगना" और "बुरा लगना" ये दो बात रहती है। "अच्छा लगना" प्रलोभन के रूप में होता है। "बुरा लगना" भय के रूप में होता है। प्रलोभन और भय भ्रम-वश ही हैं।

"भय और प्रलोभन भ्रम-वश हैं।" - यह आदर्शवाद ने भी बताया था। पर भय और प्रलोभन से मुक्ति क्या है - यह वे उस सोच से नहीं निकाल पाये। भय और प्रलोभन से मुक्ति के लिए उन्होंने वही "अस्तित्व विहीन मोक्ष" को इंगित कराया। उसके समर्थन में स्वर्ग, नर्क, पाप, पुण्य, कर्म-काण्ड, साधना-अभ्यास विधियां - ये सब बताया। उससे काम नहीं चला।

मध्यस्थ-दर्शन के अनुसंधान पूर्वक निकला - अति-व्याप्ति, अनाव्याप्ति, और अव्याप्ति दोष वश ही भय और प्रलोभन है। अतिव्याप्ति दोष वश ही अधिमूल्यन है - जिससे "प्रलोभन" है। अनाव्याप्ति और अव्याप्ति दोष वश ही अवमूल्यन और निर्मूल्यन है - जिससे "भय" है।

भय और प्रलोभन पर आधारित सोच-विचार के चलते लाभोन्माद, कामोन्माद, भोगोन्माद के तीन प्रबंध शिक्षा में आ गए। इस तरह अनेक अपराधों को वैध मान लिया गया, और भी अपराधों को वैध मानने के लिए विचार कर रहे हैं।

सह-अस्तित्व में अध्ययन पूर्वक मनुष्य भ्रम-मुक्त हो सकता है, और जागृति को प्रमाणित कर सकता है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)

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