भ्रमित-अवस्था में भी बुद्धि चित्त में होने वाले चित्रण का दृष्टा बना रहता है। जीव-चेतना में होने वाले सभी चित्रणों को बुद्धि देखता रहता है। लेकिन इस "भ्रमित-चित्रण" को बुद्धि स्वीकारता नहीं है। बुद्धि जो भ्रमित-चित्रणों को स्वीकारता नहीं है - वही "पीड़ा" है। सर्व-मानव में जो "पीड़ा" है - उसका मूल यही है।
जीव-चेतना में जीने वाले मनुष्य के जीवन में कल्पनाशीलता प्रिय-हित-लाभ के अर्थ में क्रियाशील रहता है। प्रिय-हित-लाभ पूर्वक जो चित्रण होते हैं, उनको बुद्धि स्वीकारता नहीं है। इस अस्वीकृति से इतना ही निकलता है - "यह ठीक नहीं है!" पर "ठीक क्या है?" - इसका उत्तर नहीं मिलता, क्योंकि बुद्धि में बोध नहीं रहता। मनुष्य प्रिय-हित-लाभ की सीमा में जो भी करता है, वह चित्रण से आगे जाता नहीं है। बुद्धि ऐसे भ्रमित-चित्रणों का दृष्टा बना रहता है।
भ्रमित-अवस्था में बुद्धि का दृष्टि चित्रण की तरफ़ रहता है, और आत्मा से प्रामाणिकता की अपेक्षा में रहता है। प्रमाणिकता न होने से जीवन में रिक्तता या अतृप्ति बना ही रहता है।
प्रश्न: तो इसका मतलब भ्रमित-अवस्था में मेरी बुद्धि संकेत तो करती है - यह ठीक नहीं है! लेकिन वह मेरी तृप्ति के लिए पर्याप्त नहीं है, क्योंकि "ठीक क्या है?" इसका उत्तर मेरे पास नहीं रहता। क्या यह सही है?
उत्तर: हाँ, यह सही है। "यह ठीक नहीं है!" - ऐसा अनेक लोगों को लगता है। लेकिन ठीक क्या है, असलीयत क्या है? - यह स्वयं में "अधिकार" नहीं रहता है। उसके लिए क्यों प्रयास नहीं करते? जब आपको लगता है, यह ठीक नहीं है तो सहीपन के लिए आप क्यों प्रयास नहीं करते? इस जगह में सभी को प्राण-संकट है।
बुद्धि द्वारा चित्त में होने वाले चित्रणों को देखने का काम सदा रहता है, सबके पास रहता है। बुद्धि के इस दृष्टा बने रहने से हम यह तो निर्णय ले पाते हैं, कि हम किसी "मान्यता" को लेकर चल रहे हैं। लेकिन असलीयत का अधिकार स्वयं में न होने के कारण हम परम्परा को निभते रहते हैं। यही "हठ-धर्मीयता" है।
भ्रमित-जीवन में बुद्धि जो बोध की अपेक्षा में रहती है, उसकी तृप्ति सह-अस्तित्व में अध्ययन पूर्वक ही सम्भव है।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)
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