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Monday, August 17, 2009

जिज्ञासा पूर्वक हम सीधे सत्य-बोध होने की जगह में चले जाते हैं.

भ्रमित-अवस्था में भी बुद्धि चित्त में होने वाले चित्रणों का दृष्टा बना रहता है। मध्यस्थ-दर्शन का अस्तित्व-सहज प्रस्ताव का चित्रण जब चित्त में होता है, तो बुद्धि उससे "सहमत" होती है। यही कारण है - इस प्रस्ताव को सुनने से "रोमांचकता" होती है। रोमांचकता का मतलब यह नहीं है - "कुछ बोध हो गया!" इस रोमांचकता से "तृप्ति" नहीं है।

प्रश्न: तृप्ति के लिए फ़िर क्या किया जाए?

उत्तर: प्रिय-हित-लाभ पूर्वक जो हम तुलन करते हैं, वहाँ न्याय-धर्म-सत्य को प्रधान "माना" जाए। न्याय-धर्म-सत्य की "चाहत" भ्रमित-मनुष्य में भी बनी ही है। एक भी क्षण ऐसा नहीं है जब हम न्याय, धर्म, सत्य को नहीं चाहते हों! हर व्यक्ति के मानस-पटल पर न्याय-धर्म-सत्य की चाहत है। इस प्रस्ताव को सुनने के बाद, उसके आधार पर हम "जिज्ञासा" शुरू करते हैं, यह कहाँ तक न्याय है? कहाँ तक समाधान है? कितना हम सच्चाई को समझे है, और प्रमाणित कर रहे हैं। "न्याय", "धर्म", "सत्य" शब्दों से हम में सहमति है। न्याय क्या है? धर्म क्या है? सत्य क्या है? - यह जिज्ञासा है। यह जिज्ञासा स्वयं में शुरू होने पर अंततोगत्वा हमारी प्राथमिकता न्याय, धर्म, और सत्य के लिए स्थिर हो जाती है।

प्रश्न: यह जिज्ञासा कैसे काम करती है?

उत्तर: हम जहाँ भी रहते हैं, वहाँ सोचते हैं ही। वहीं हम "स्वयं की जांच" शुरू कर देते हैं - न्याय सोच रहे हैं या अन्याय सोच रहे हैं। यह जांच होने पर न्याय, धर्म, और सत्य की प्राथमिकता को हम स्वयं में स्वीकार लेते हैं। यह प्राथमिकता स्वीकार लेने के बाद हम न्याय क्या है - अन्याय क्या है? धर्म क्या है - अधर्म क्या है? सत्य क्या है - असत्य क्या है? इस "शोध" में लगते हैं।

इस शोध के फल-स्वरूप हम इन निष्कर्षों पर पहुँचते हैं।
(१) सह-अस्तित्व स्वरूपी अस्तित्व ही "परम-सत्य" है।
(२) सर्वतोमुखी समाधान ही "धर्म" है।
(३) मूल्यों का निर्वाह ही "न्याय" है।

इन तीन निष्कर्ष पर आने पर तत्काल साक्षात्कार हो कर बुद्धि में बोध होता है। बुद्धि में जब यह स्वीकार हो जाता है तो यह तुंरत अनुभव में आ जाता है। सह-अस्तित्व में अनुभव हो जाता है।

बोध तक अध्ययन है। उसके बाद अनुभव स्वतः होता है।

इसके बाद अनुभव-मूलक विधि से बुद्धि में अनुभव-प्रमाण बोध होने लगता है। प्रमाण-बोध जब बुद्धि में आता है तो हमारा आचरण "मानवीयता पूर्ण" होने लगता है। आप ही बताओ - इसको मैं ज्ञान मानू या और किसी चीज को मानू?

विगत में कहा गया था - सत्य समाधि में समझ में आता है। मध्यस्थ-दर्शन के अनुसंधान से निकला - "जिज्ञासा पूर्वक हम सत्य-बोध होने की जगह में सीधे चले जाते हैं।"

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)

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