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Monday, August 10, 2009

अस्तित्व में उत्सव

साम्य-ऊर्जा (व्यापक) के पारगामी होने के कारण परमाणु-अंश ऊर्जा-संपन्न हैं। ऊर्जा-सम्पन्नता के आधार पर ही परमाणु-अंशों में एक दूसरे को पहचानने की ताकत आयी। फलस्वरूप वे एक दूसरे को पहचान भी लिए। परमाणु-अंश एक दूसरे को पहचानते हैं, उसी आधार पर एक परमाणु का गठन होता है। परमाणु-अंश में भी व्यवस्था में भागीदारी करने की प्रवृत्ति है।

परमाणु-गठन का प्रमाण है - परमाणु का निश्चित आचरण। दो अंश का परमाणु भी निश्चित आचरण करता है। दो सौ अंश का परमाणु भी निश्चित-आचरण करता है। परमाणु अपने गठन के उपरांत एक निश्चित आचरण करता है - यह गठन होने की सफलता की स्वीकृति है। उत्सव का मतलब है - सफलता की स्वीकृति। सफलता के अर्थ में उत्सव है। असफलता के अर्थ में ही मातम है।

परमाणु-गठन से ही "अस्तित्व में उत्सव" की शुरुआत है।

परमाणु के निश्चित आचरण का फलन है - उसकी उपयोगिता और पूरकता। इस प्रकार विभिन्न संख्या में परमाणु-अंशो के गठित होने से अनेक प्रजातियों के परमाणु गठित हो गए।

सभी आवश्यक परमाणुओं के गठन होने के उपरांत - एक जलने वाला पदार्थ और एक जलाने वाला पदार्थ जब निश्चित अनुपात में यौगिक विधि से मिलते हैं तो पानी का प्रकटन होता है। पानी पहला यौगिक है। यौगिक विधि से जो पानी बना - उस "खुशहाली" या "उत्सव" के फलन में रचना-तत्व और पुष्टि-तत्व के संयोग से प्राण-सूत्र "बन जाते हैं"।

प्राण-सूत्रों में जब साँस लेने का या सप्राणित होने का जब मुहूर्त आता है - तब वे उत्सवित होते हैं। प्राण-सूत्रों के उत्सवित होने के फलस्वरूप उनमें रचना-विधि आ जाती है। उस रचना-विधि के अनुरूप वे प्राण-सूत्र रचना-कार्य में संलग्न हो जाते हैं।

जब वह रचना बीज-वृक्ष परम्परा के रूप में स्थापित हो जाती है तो पुनः प्राण-सूत्रों में उत्सव होता है, जिससे उनमें "नयी" रचना-विधि आ जाती है। इस तरह हर उत्सव के बाद प्राण-सूत्रों में नयी रचना-विधि उभर आती है। इस तरह असंख्य रचनाओं की परम्पराएं स्थापित हो गयी।

जीव-अवस्था के शरीर प्राण-अवस्था की रचनायें ही हैं। जीव-अवस्था की विभिन्न शरीर परम्पराएं प्राण-सूत्रों में निहित रचना-विधि में उत्तरोत्तर गुणात्मक विकास से है। जीव-अवस्था में जीवन और शरीर का संयुक्त प्रकाशन होता है।

मनुष्य शरीर-परम्परा भी प्राण-सूत्रों में गुणात्मक विकास के इस क्रम में ही स्थापित हुई है। मनुष्य शरीर की विशेषता है कि जीवन अपनी कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता को मनुष्य के जीने में प्रकाशित कर सकता है।

मनुष्य जीवन में सफलता की शुरुआत समझदारी से ही है। मनुष्य जीवन में उत्सव की शुरुआत समझदारी से ही है।

समझदारी पूर्वक मनुष्य जीवन एक उत्सव ही है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)

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