ANNOUNCEMENTS



Sunday, August 16, 2009

रहन-सहन का तरीका बदलना मानवीयता की परम्परा बनाने में सहायक सिद्ध नहीं होता.

रहन-सहन के तरीकों को बदलना मानवीयता की परम्परा बनाने में सहायक सिद्ध नहीं हो पाता। रहन-सहन का तरीका एक रूढी ही है। इसको बदल कर हम दूसरी तरह से रहने लगें - तो वह दूसरी रूढी हो जाती है।

जीव-चेतना में हम आशा, विचार, और इच्छा के सीमा में ही प्रकट हो पाते हैं। प्रमाण के रूप में हम किसी भी बात में प्रकट नहीं हो पाते हैं। इस संकट-वश हम जो भी "करते" हैं उसी को "प्रमाण" मान लेते हैं। "करने" की सीमा भौतिक-रासायनिक वस्तुओं तक ही है।

अध्ययनं पूर्वक जब मनुष्य के सोच-विचार का तरीका मानवीयता के अर्थ में बदलता है, वही मानवीयता की परम्परा बनाने का आधार बनता है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)

No comments: