सुनना भाषा है। समझना अर्थ है। अर्थ अस्तित्व में वस्तु है। वस्तु समझ में आता है, तो हम अर्थ समझे। अर्थ जो समझे - वही अनुभव है। अर्थ ही अनुभव है। शब्द अनुभव नहीं है। हमारे बुजुर्गों ने शब्द को ही अनुभव मान लिया। मानव-इतिहास में कई जगह हम छूट-छूट कर निकल गए हैं। उन सबके जुड़ने की विधि अनुभव ही है।
जीवन और सह-अस्तित्व के जुड़ने की विधि अनुभव ही है। दूसरा कुछ भी नहीं है। वह विधि है - अस्तित्व में वस्तु के रूप में अनुभव करना, और प्रमाणित करना। इतना ही है। इससे मानवीयता पूर्ण आचरण आता है। मानवीयता पूर्ण आचरण आने से व्यवस्था में जीने का सूत्र बनता है। हम अभी जितना जीते हैं, उससे आगे का सूत्र अपने-आप जीवन से निकलता ही चला जाता है। जैसे- अभी कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता पूर्वक मनाकार को साकार करने का सूत्र अपने आप से जीवन से निकलता गया, तभी मानव अपने इतिहास में जंगल-युग से आज के युग में पहुँच गया। वैसे ही अनुभव पूर्वक मनः स्वस्थता को प्रमाणित करने का सूत्र अपने आप से जीवन से निकलता ही चला जाता है।
सर्वतोमुखी समाधान को मनः स्वस्थता के रूप में मैंने अनुभव किया है, समझा है, जिया है।
मनः स्वस्थता आप में होने के लिए तीन ही बात है -
(1) शब्द को सुनना
(२) अर्थ को समझना
(३) समझ को प्रमाणित करना
इतना सरल है यह। अभी मैं जो कर रहा हूँ, इतना ही कर रहा हूँ।
प्रश्न: साक्षात्कार, बोध, और अनुभव मुझे हुआ है या नहीं - यह मुझे कैसे पता चलेगा?
उत्तर: यह आपको ही पता चलेगा। दूसरे को तो केवल आपके जीने में प्रमाणों से पता चलेगा। जीवन में स्वयं से कुछ भी "छुपा" नहीं है। जब तक हम शरीर को जीवन माने रहते हैं, जीवन छुपा ही रहता है। जीवन को "मान" कर देखना शुरू करते हैं तो शनै शनै जीवन को प्रमाणित करने की जगह में पहुँच जाते हैं।
हम में आशा होती ही है - उस आशा की "तुष्टि" हमको चाहिए। यह तुष्टि कैसे होगी, इसका उत्तर है - समाधान पूर्वक ही होगी। मन में समाधान हो जाए। हर विचार में समाधान प्रकट हो जाए। हर इच्छा में समाधान समा जाए। इस तरह जब हम अपने सोच-विचार को पूरा इसमें लगा देते हैं तो अनुभव होने की सम्भावना बन जाती है।
अनुभव होने पर, अनुभव का प्रमाण हर स्थिति में बना रहता है।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)
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