भ्रमित अवस्था में भी मनुष्य में न्याय, धर्म, और सत्य "सहज-अपेक्षा" है। "न्याय", "धर्म", और "सत्य" शब्द हमारे विचार में हैं। पर "न्याय" क्या है? "धर्म" क्या है? "सत्य" क्या है? - इसका उत्तर मिलता नहीं है। फलतः प्रिय-हित-लाभ में हम लोटते रहते हैं। वृत्ति को "स्मरण पूर्वक" यह सूचना मिलती है - "सह-अस्तित्व स्वरूप में सत्य है", "समाधान स्वरूप में धर्म है", "मूल्यों के निर्वाह के स्वरूप में न्याय है"। इस सूचना का वृत्ति में परिशीलन (निरीक्षण-परीक्षण) करने पर वृत्ति "उत्सवित" होती है, फलन में चित्त में साक्षात्कार होता है। चित्त के इस प्रकार "उत्सवित" होने पर बुद्धि में बोध हो जाता है। अध्ययन विधि में ऐसे ही होता है।
मनुष्य की कल्पनाशीलता का तृप्ति-बिन्दु सह-अस्तित्व में अनुभव ही है।
कल्पनाशीलता की रोशनी के प्रयोग से हम साक्षात्कार पूर्वक बोध-संपन्न होने तक पहुँच जाते हैं। बोध-संपन्न होने पर अनुभव की रोशनी प्रभावशील हो जाती है। कल्पनाशीलता की रोशनी अनुभव की रोशनी में विलय हो जाती है।
इसको आप अच्छी तरह से पचाइये! इस जगह में जल्दीबाजी नहीं करिए। इसको समझने के लिए आपको "ध्यान" देना होगा।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)
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