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Thursday, August 13, 2009

आचरण और संविधान

पहले धर्म-शास्त्रों को ही संविधान माना जाता था। धर्म सम्प्रदायों द्वारा प्रतिपादित आचार संहिताओं को ही संविधान मान लिया जाता था। इन आचार-संहिताओं के आधार पर ही राज्य होता था। धीरे-धीरे राज्य-संविधान और धर्म-संविधान अलग-अलग हो गए। राज्य-संविधान में मूलतः कहा गया - गलती को गलती से रोको, अपराध को अपराध से रोको, युद्ध को युद्ध से रोको! ये तीनो बात अपराध ही हैं। इस तरह पूरा राज्य-संविधान "अपराध-संहिता" ही है। सभी देशों के राज्य-संविधान का मूल रूप यही है। अपराध-संहिता को हम "न्याय-संहिता" कहते हैं!

अस्तित्व में हर परमाणु, हर अणु, हर पेड़-पौधे, हर पशु-पक्षी सभी अपने त्व-सहित व्यवस्था में होने से ही समग्र व्यवस्था में भागीदारी करते हैं। उनका समग्र व्यवस्था में भागीदारी करना उनके "निश्चित आचरण" का स्वरूप है। मनुष्य के निश्चित आचरण से ही उसके समग्र व्यवस्था में भागीदारी करने का स्वरूप निकल सकता है। अभी तक मानव जाति जीवचेतना में ही जिया है। जीवचेतना में जीते हुए मानव का आचरण अनिश्चित होता है। मानव आचरण निश्चित नहीं होने के कारण हम मानवीय व्यवस्था के स्वरूप को पहचान नहीं पाये। मानवचेतना में ही मानव का आचरण निश्चित होता है। सहअस्तित्ववादी विधि से मानव के निश्चित आचरण के स्वरूप को पहचानने की विधि निकल आई.

सहअस्तित्व में अध्ययन के पूर्ण होने पर मानव समझदार होता है, फलन में मानवीयतापूर्ण आचरण करने में समर्थ हो पाता है। समझदारी के साथ ही मानव अपने त्व सहित व्यवस्था में होता है, फलतः समग्र व्यवस्था में भागीदारी कर पाता है। समझदारी के बिना मानवीयतापूर्ण आचरण कर पाना सम्भव ही नहीं है। विचार शैली जब बदल जाती है, तो आचरण अपने आप बदल जाता है। आचरण बदल कर विचारशैली नहीं बदलती। विचारशैली को मानवीयता के पक्ष में बदलने के लिए ही मध्यस्थ दर्शन के अध्ययन का प्रस्ताव है।

"मूल्य", "चरित्र", और "नैतिकता" के संयुक्त स्वरूप में मानवीयता पूर्ण आचरण को पहचाना जा सकता है।

मूल्य - समझदारी पूर्वक मनुष्य अपने संबंधों को पहचान सकता है, मूल्यों का निर्वाह कर सकता है, मूल्यांकन कर सकता है, उभय-तृप्ति पा सकता है। मूल्यों में जीना मानवीयता पूर्ण आचरण का एक आयाम है।

चरित्र - स्वधन, स्वनारी/स्वपुरूष, और दया पूर्ण कार्य-व्यवहार - यह मानवीयता पूर्ण चरित्र है। चरित्रता पूर्वक जीना मानवीयता पूर्ण आचरण का दूसरा आयाम है।

नैतिकता - तन-मन-धन का सदुपयोग और सुरक्षा - यह मानवीयता पूर्ण नैतिकता है। नैतिकता पूर्वक जीना मानवीयता पूर्ण आचरण का तीसरा आयाम है।

इन तीनो के संयुक्त स्वरूप में मानवीयता पूर्ण आचरण है।

जीवचेतना में जीते हुए मनुष्य में भी न्याय, समाधान, और सत्य (व्यवस्था) की सहज-अपेक्षा है।

अध्ययन क्रम में : -
न्याय सहज अपेक्षा के आधार पर "मूल्य" स्पष्ट हो जाता है।
समाधान सहज अपेक्षा के आधार पर "चरित्र" स्पष्ट हो जाता है।
सत्य (व्यवस्था) सहज अपेक्षा के आधार पर "नैतिकता" स्पष्ट हो जाता है।

मानव में "चाहत" ग़लत नहीं है। "चाहत" के अनुरूप "घटना" घटित नहीं हुआ। उसके विपरीत अपराधिक घटनाएं घटता चला गया। अपराधिक घटनाओं के फलन में ही धरती बीमार हो गयी। इसलिए "पुनर्विचार" की आवश्यकता आ गयी। धरती पर आदमी को बने रहना है तो पुनर्विचार करेगा, नहीं रहना है तो नहीं करेगा।

मानव परम्परा जो ईश्वरवादी और भौतिकवादी तरीकों से सोचा है, उनका इस ओर ध्यान ही नहीं गया। या अनुसंधान नहीं किया। इसी को यहाँ मध्यस्थ दर्शन में प्रस्तावित किया जा रहा है।

- बाबा श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)

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