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Thursday, July 30, 2009

विद्वतापूर्ण बुद्धि की बात

"यह करो, यह मत करो!" - यह मूढ़ बुद्धि की कथा है। "क्या होना चाहिए, क्या नहीं होना चाहिए" - यह विचार-बुद्धि की बात है। "यह आवश्यक है, यह अनावश्यक है" - यह विद्वता-पूर्ण बुद्धि की बात है। यही मूल मन्त्र है।

"आवश्यक क्या है, अनावश्यक क्या है" - इसके आधार पर "होना क्या चाहिए, और क्या नहीं होना चाहिए" का निर्धारण है। फ़िर "क्या करना है" - यह निश्चित हो जाता है।

प्रश्न: "करने, नहीं करने" की सोच में क्या परेशानी है?

उत्तर: "नहीं करना" कुछ होता नहीं है। "क्या करना है" - यह भ्रमित-स्थिति में स्पष्ट नहीं रहता है। "होना" जब स्पष्ट हो जाता है, तब क्या करना है - यह निश्चित हो जाता है।

पहले "ज्ञान" लक्ष्य के प्रति स्पष्ट होना आवश्यक है। पहले प्रक्रिया (करो, नहीं करो) को ठीक करने जाने से काम नहीं चलेगा। यही shift है। ज्ञान जब स्वयं में निश्चित हो जाता है, तो उसके फलन में "करना" भी निश्चित हो जाता है। "करना" निश्चित करके ज्ञान होता नहीं!

अभी तक आदर्शवाद और भौतिकवाद ने जो भी बताया उसमें कहा - "करके समझो!" मैं यहाँ कह रहा हूँ - "समझ के करो!"

सिद्धांत यही है।

समझने का अधिकार हर व्यक्ति के पास हर परिस्थिति में रखा है। चाहे चपरासी हो, चाहे राजा हो - समझने का अधिकार सबमें समान है। भद्दे से भद्दा आदमी जिसको मानते हैं - उसके पास भी, अच्छे से अच्छा आदमी जिसको मानते हैं - उसके पास भी।

समझने का अवसर युगों के बाद आज आया है।

समझने के लिए सभी परिस्थितियां अनुकूल हैं। परिस्थितयों को पहले बदलने जाओगे तो बखेडे में ही पडोगे!

मैंने भी यही किया है। समाधि-संयम तक मैं विरक्ति विधि से ही रहा। समाधि-संयम पूर्वक समझने के बाद ही मैंने समाधान-समृद्धि पूर्वक जीने के mechanism को जोड़ा। ज्ञान स्पष्ट होने से mechanism "निश्चित" हो जाता है। mechanism को बदलने से ज्ञान स्पष्ट नहीं होता।

समाधान-संपन्न होने के लिए हर व्यक्ति के पास अधिकार है - कल्पनाशीलता के रूप में। समझने के लिए हर परिस्थिति अनुकूल है। मध्यस्थ-दर्शन के अनुसंधान के सफल होने के आधार पर उसके साथ समाधान-संपन्न होने का स्त्रोत भी जुड़ गया है। इस स्त्रोत के आधार पर - हर व्यक्ति के पास, हर परिस्थिति में समाधान तक पहुँचने का रास्ता बन गया है।

समाधान संपन्न होने के बाद समृद्धि के लिए डिजाईन हर व्यक्ति में अपने में से ही उद्गमित होगा।

"समाधान प्राथमिक है" - इसको स्वीकारने में न कोई पैसा जाता है, न पद जाता है, न कोई परेशानी होता है। "समाधान प्राथमिक है" - इसको स्वीकारने में न दरिद्रता अड़चन है, न अमीरी अड़चन है, न दुष्टता अड़चन है, न निकृष्टता अड़चन है। इससे ज्यादा क्या बताया जाए?

हर परिस्थितियां समाधान-संपन्न होने को सफल बनाने के लिए सहयोगी ही हैं। इस बात की महिमा यही है। यदि हम समाधान की ओर गतिशील होते हैं - तो परिस्थितियां हमारे अनुकूल बनते जाते हैं। प्रतिकूल बनते ही नहीं हैं। केवल स्वयं में यह प्राथमिकता को तय करने की बात है - "अनुभव-प्रमाण ही समाधान है।" जब अध्ययन की आवश्यकता स्वयं में conclude होती है, तो ध्यान लगता ही है। जब तक यह conclude नहीं होता - ध्यान नहीं लगता।

-  श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)

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