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Wednesday, August 19, 2009

ज्ञानार्जन में कोई bargain नहीं है

प्रश्न: आपने पूरा दर्शन हमारे सम्मुख प्रस्तुत किया, पर मेरा मन तो अभी तक नहीं भरा...

उत्तर: भाषा के अर्थ में पहुंचना हर व्यक्ति में स्वयं स्फूर्त होता है। ज्ञानार्जन में कोई bargain नहीं है। यह अस्तित्व-सहज है। अस्तित्व में सम्पूर्ण वस्तु निहित है। वस्तु के रूप में हमें वस्तु बोध होने पर ही मन भरता है। उसके लिए प्रयत्न करना चाहिए। सहअस्तित्व कैसे है, क्यों है - इन दोनों प्रश्नों का उत्तर बारम्बार अपने मन में पहुंचना चाहिए। फलतः अनुभव में आकर स्वयं को प्रमाणित करने की अर्हता स्थापित होना चाहिए। फलस्वरूप मन भरेगा, नहीं तो काहे को भरेगा?

संज्ञानशीलता की अर्हता हम कितनी जल्दी हासिल कर सकते हैं, वह हमारी "तीव्रता" के आधार पर है। हमारी साँस लेने की एक गति है, सोचने की एक गति है, निर्णय लेने के लिए प्राथमिकता बनने की एक गति है। संज्ञानशीलता की प्राथमिकता जब स्वयं में बन जाती है, तो काम हो जाएगा! अपने आप पर भरोसा तो करना पड़ेगा। अपने पर भरोसा छोड़ कर जीना तो बनेगा नहीं। या तो हम किसी को हांकते रहेंगे, या दूसरा कोई हमको हांकता रहेगा! अर्हता हासिल करने के लिए अध्ययन ही एक मात्र आसरा है। धीरे-धीरे अपने में विश्वास अर्जन करने की बात है। अर्हता बढ़ते-बढ़ते एक दिन पूर्णता तक भी पहुँचती है। फ़िर बोध होना, और अनुभव होना होता है। उसके बाद हम मानवीयता पूर्ण तरीके से जीने "योग्य" हो जाते हैं।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)

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