जीव-चेतना में जीता हुआ मनुष्य भय और प्रलोभन से चालित रहता है। भय-प्रलोभन वश हम जो करते हैं, उसमें से कुछ "सही" हो जाता है, कुछ "ग़लत" हो जाता है। जीव-चेतना में शरीर-मूलक दृष्टियों से ही विचार होता है, और उसी के अर्थ में "करना" भी होता है। प्रिय-हित-लाभ दृष्टियों की सीमा में जो "सही" होता है, वह शरीर के साथ ही "सही" होता है। इस तरह "ग़लत" जो होता है - वह चारों अवस्थाओं के साथ होता है। इस तरह जीव-चेतना में जीते हुए मनुष्य के "सहीपन का दायरा" शरीर तक ही सीमित हो जाता है। "गलती का दायरा" बढ़ जाता है। गलती का दायरा बढ़ जाने से गलती करने की आदत बढ़ती जाती है। दूसरे कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता रहने से और मनाकार को साकार करने की प्रवृत्ति रहने से - हमने हर अपराध को वैध मान लिया। मनुष्य के साथ अपराध और धरती के साथ अपराध। इस अपराध श्रृंख्ला के चलते धरती बीमार हो गयी।
समझदारी पूर्वक मनुष्य भ्रम-मुक्त होता है, फलतः अपराध-मुक्त होता है। समझदारी के लिए मध्यस्थ-दर्शन के अध्ययन का प्रस्ताव है।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)
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