जीवन अपने स्वरूप में एक गठनपूर्ण परमाणु है। इसके पाँच स्तर हैं - मन, वृत्ति, चित्त, बुद्धि, और आत्मा। जीवन इन पाँचों का अविभाज्य स्वरूप है। भ्रमित-मनुष्य में जीवन की ४.५ क्रियाएं ही क्रियाशील रहती हैं, शेष क्रियाएं सुप्त रहती हैं। ४.५ क्रियाएं जो क्रियाशील रहती हैं - उसी से मनुष्य में कल्पनाशीलता प्रकट है। आशा, विचार, और इच्छा का संयुक्त स्वरूप कल्पनाशीलता है। भ्रमित-जीवन में विचार (वृत्ति) प्रिय-हित-लाभ दृष्टियों से कार्य करता है। भ्रमित-जीवन में इच्छा (चित्त) में चित्रण क्रियाशील रहता है, चिंतन सुप्त रहता है।
चिंतन भाग जीवन में तब तक सुप्त रहता है जब तक अनुभव-प्रमाण आत्मा में न हो! अनुभव-प्रमाण के बिना चिंतन की "खुराक" ही नहीं है।
वृत्ति में जब हम प्रिय-हित-लाभ दृष्टियों से ही तुलन करते हैं तो वह चिंतन में जाता नहीं है। प्रिय-हित-लाभ पूर्वक तुलन करके हम शरीर-मूलक चित्रण तक ही पहुँचते हैं। शरीर-मूलक बात को चित्रण से आगे बढाया नहीं जा सकता। उसमें चिंतन की कोई वस्तु नहीं है। उसमें केवल संवेदना है, और संवेदना को राजी रखने की प्रवृत्ति है। इसी को "संवेदनशीलता" कहा है। इसको "वेदना" इसलिए कहा - क्योंकि संवेदनाओं में सुख "भासता" है ("सुख जैसा लगता है") पर उसकी निरंतरता नहीं बनती। यह "कष्ट" भ्रम पर्यंत बना रहता है।
यह "वेदना" जीवन में अतृप्ति के कारण है। अतृप्ति की रेखा चिंतन और चित्रण के बीच बनी है। इसी लिए चित्रण में दुःख बारम्बार दखल करता है. समस्याओं के बिगाड़ का संकेत चित्रण में आता ही है। वह मानव के लिए "संकट" है। उससे मुक्ति पाना अपना काम है.
भय और प्रलोभन में हम कुछ करते हैं - उसमे कुछ सही हो जाता है, कुछ गलत हो जाता है. इसमें "सही" वाला भाग शरीर से सम्बंधित है, गलती वाला भाग चारों अवस्थाओं से सम्बंधित है. इस तरह सहीपन के बारे हम केवल शरीर तक ही सीमित हो गए. यह संकीर्ण हो गए कि नहीं? इस तरह सहीपन को पहचानने का क्षेत्र सिकुड़ गया और गलती करने का क्षेत्र बढ़ गया. गलती का क्षेत्र बढ़ जाने से गलती करने की आदत बढ़ती गयी. इधर मानव में कल्पनाशीलता-कर्म स्वतंत्रता रहा ही, साथ में मनाकार को साकार करने वाली प्रवृत्ति रही. इसके चलते मनाकार को साकार करने के क्रम में हर अपराध को वैध मान लिया. यहाँ आके मानव खड़ा है अभी.
प्रश्न: अब इसी स्थिति में हम आपसे अस्तित्व के सहअस्तित्व स्वरूप में होने की बात सुने, उससे हमारी सहमति बनी तो वह हमको रोमांचकता हुई. हमारे इस रोमांचित होने में हो क्या रहा है?
उत्तर: सहमत होने से रोमांचकता तो होती है, पर तृप्ति नहीं. रोमांचकता मुद्दा नहीं है. मुद्दा है - "तृप्ति के लिए क्या किया जाए?" अभी जो प्रिय-हित-लाभ दृष्टियों से तुलन करते हैं, उसमे न्याय-धर्म-सत्य को जोड़ा जाए. न्याय-धर्म-सत्य को हम चाहते तो हैं ही. हमारे में कोई ऐसा क्षण नहीं है जब हम न्याय-धर्म-सत्य को चाहते न हों. "चाहत" के रूप में हर मानव में न्याय-धर्म-सत्य है ही! हर व्यक्ति के मानसपटल पर न्याय-धर्म-सत्य की चाहत है. मन में भी न्याय-धर्म-सत्य को लेकर सहमति है. इसलिए हम जितना भी न्याय-धर्म-सत्य को लेकर जानते हैं, उससे तुलन शुरू करते हैं - कहाँ तक यह न्याय है या अन्याय है? कहाँ तक यह समाधान है या समस्या है? कहाँ तक यह सत्य है, कितना हम सत्य को समझ पाए हैं, प्रमाणित कर पाए हैं? यह जिज्ञासा शुरू करने से अपनी वरीयता को न्याय-धर्म-सत्य के लिए स्थिर कर देते हैं.
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)
2 comments:
Please elaborate on the 4.5 and 10 kriya one by one, in MD language.
जीवन अपने स्वरूप में एक गठन-पूर्ण परमाणु है. गठनशील परमाणु ही विकसित हो कर गठन-पूर्ण बनता है. जीवन चैतन्य ईकाई है, जो भौतिक-रासायनिक शरीर को जीवंत बनाता है. जीवन दस अविभाज्य क्रियाओं का संयुक्त स्वरूप है - जिसमें से ५ स्थिति में और ५ गति में हैं. जीवन में ५ स्तर होते हैं - मन, वृत्ति, चित्त, बुद्धि, और आत्मा.
मन आस्वादन (स्थिति) और चयन (गति) को प्रकाशित करता है. मन ही मेधस पर जीवन के संकेतों को प्रसारित करता है. मन की शक्ति को "आशा" कहते हैं.
वृत्ति तुलन (स्थिति) और विश्लेषण (गति) को प्रकाशित करता है. वृत्ति की शक्ति को "विचार" कहते हैं. भ्रमित जीवन में वृत्ति में तुलन प्रिय-हित-लाभ दृष्टियों के आधार पर होता है. न्याय-धर्म-सत्य की तुलन-दृष्टियाँ सुप्त रहती हैं. प्रिय-हित-लाभ शरीर-मूलक दृष्टियाँ है. न्याय-धर्म-सत्य दृष्टियाँ अनुभव-मूलक विधि से ही जागृत होती हैं.
चित्त चिंतन (स्थिति) और चित्रण (गति) को प्रकाशित करता है. चित्त की शक्ति को "इच्छा" कहते हैं. भ्रमित-जीवन में चिंतन क्रियाशील नहीं रहता है तथा चित्रण भी शरीर-मूलक होता है.
इस तरह भ्रमित-जीवन में मन की दो क्रियाएं, वृत्ति की १.५ क्रियाएं (आधा तुलन), और चित्त की एक क्रिया क्रियाशील रहती है. यही ४.५ क्रिया हैं. यही आशा, विचार, इच्छा हैं. आशा, विचार, और इच्छा के संयुक्त स्वरूप को ही कल्पनाशीलता कहते हैं. भ्रमितमनुष्य कल्पनाशीलता पूर्वक कर्म-स्वतंत्रता को अपने जीने में प्रकाशित करता है.
भ्रमित-जीवन की बुद्धि में बोध नहीं रहता, लेकिन वह बोध की अपेक्षा में रहती है. लेकिन शरीर-मूलक कल्पनाशीलता द्वारा किये गए कार्यों और उनके फल-परिणामो से होने वाले चित्रणों को बुद्धि स्वीकारती नहीं है. यह "असहमति" या "अतृप्ति" ही मनुष्य में मूल पीडा है. इस पीडा को दूर करने के लिए मनुष्य और कल्पनाशीलता का प्रयोग करता है, लेकिन उससे कोई समाधान मिलता नहीं है. केवल आशा-विचार-इच्छा के योग में काम करने से समस्या ही मनुष्य पैदा कर सकता है.
इसी कल्पनाशीलता को अस्तित्व के अध्ययन में लगाने से जीवन में सुप्त क्रियाएं जागृत हो सकती हैं. यही मध्यस्थ-दर्शन का प्रस्ताव है.
सुप्त क्रियाएं हैं:
आत्मा में अनुभव (स्थिति) और प्रमाण (गति). आत्मा की शक्ति को प्रामाणिकता कहते हैं. यह अध्ययन पूर्वक जागृत होती है. भ्रमित-जीवन में ये क्रियाएं सुप्त रहती हैं. जागृत होने पर यही जीवन में तृप्ति का अक्षय स्त्रोत है.
बुद्धि में बोध (स्थिति) और संकल्प (गति). बुद्धि की शक्ति को ऋतंभरा कहते हैं. भ्रमित जीवन में ये क्रियाएं सुप्त रहती हैं, और चित्त में होने वाली क्रियाओं का दृष्टा बनी रहती हैं. जागृत जीवन में यही शक्ति स्वयं में सच्चाई के प्रति अटूट विश्वास का स्त्रोत है.
अनुभव मूलक विधि से चित्त में चिंतन होता है. यह न्याय, धर्म, और सत्य को जीने में प्रमाणित करने के अर्थ में होता है. यही चिंतन अनुभव-मूलक चित्रण का आधार हो जाता है.
यही चिंतन वृत्ति में न्याय-धर्म-सत्य तुलन क्रियाओं को क्रियाशील बनाता है.
इस तरह अनुभव-मूलक विधि से जीवन में १० क्रियाएं क्रियाशील हो जाती हैं.
यह सार-संक्षेप में कही गयी बात है.
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