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Wednesday, August 12, 2009

ईश्वर और मुक्ति

ईश्वर को मैंने व्यापक स्वरूप में देखा। उसी को "परमात्मा" नाम दिया जा सकता है - यदि इच्छा हो तो! ऐसे "व्यापक वस्तु में संपृक्त प्रकृति" के रूप में अस्तित्व की व्याख्या करने में न भौतिक वस्तु की अवहेलना हुई, न ईश्वरीय-तत्व की अवहेलना हुई। भौतिकवाद ईश्वरीय-तत्व को भुलावा देकर शुरुआत किए - और "अनर्थ" की ओर ले गए। ईश्वरवाद भौतिकता को भुलावा दे कर शुरू किए - और वे भी "अनर्थ" की ओर ले गए। अस्तित्व को "व्यापक में संपृक्त प्रकृति" के रूप में पहचानने से भौतिकवादी सोच और ईश्वरवादी सोच दोनों का सुधार हो सकता है।

ईश्वरवाद एकांत के लिए, भक्ति के लिए, विरक्ति के लिए "उपदेश" दिया। ईश्वरवाद अस्तित्व का अध्ययन नहीं करा पाया। "उपदेश" का मतलब है - हम जो कहते हैं, उसको सुनो और करो! करके समझो!

भौतिकवाद भी उसी तरह "करके समझो!" वाली जगह में ही है!

सह-अस्तित्व-वाद में इन दोनों के विकल्प में कहा है - "समझ के करो!"

समझे हुए को समझाना ही "उपकार" है। यदि समझ में आता है, तो "मुक्ति" की बात होती है। मुक्ति का मतलब है - भ्रम मुक्ति। भ्रम-मुक्ति का प्रमाण जीने में आता है, उसका स्वरूप है - "अपने-पराये से मुक्ति" और "अपराध-मुक्ति"। अपराध-मुक्त होने पर, और अपने-पराये की दीवारों से मुक्त होने पर हम "न्याय" पूर्वक जीने में संलग्न हो सकते हैं।

भ्रम-मुक्ति ही "मोक्ष" है।

ईश्वर-वाद ने कहा - "जीवन-मुक्ति ही मोक्ष है"। वह ग़लत हो गया। जीवन का समाप्ति होता नहीं है। आत्मा "ईश्वर के अंश" के रूप में जीवन में "बंदी" नहीं है। ईश्वर व्यापक वस्तु है। जीवन गठन-पूर्ण परमाणु है। आत्मा जीवन-परमाणु का मध्यांश है। जीवन व्यापक में संपृक्त है - इसलिए, ऊर्जा-संपन्न है। इसी के आधार पर जीवन के भ्रम-मुक्त होने की बात है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)

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