अध्ययन मनुष्य का मनुष्य के साथ ही होता है।
मनुष्य एक संवेदनशील और संज्ञानशील इकाई है। संवेदनशीलता और संज्ञानशीलता के प्रमाण के लिए एक से अधिक मनुष्यों का होना आवश्यक है।
दो मनुष्यों के बीच ही संज्ञानीयता प्रमाणित होने की स्थिति बनती है। समझाने वाले के समझा देने पर और समझने वाले के समझ लेने पर स्वाभाविक रूप में संज्ञानीयता प्रमाणित होती है।
समझने के बाद समझ को प्रमाणित करने में कहीं भी अड़चन नहीं है। जैसे - मुझे अपनी समझ को प्रमाणित करने में अभी तक तो कोई अड़चन नहीं आया। "हम सुनेंगे नहीं" और "हम करेंगे नहीं" इन दो कालम में संसार अभी खड़ा है। किंतु इस बात का विरोध करना बनेगा नहीं।
भाषा अध्ययन का आरंभिक भाग है। भाषा का प्रयोजन है - सूचना तक देना। किताब से सूचना है। सुनने पर सूचना होता है। देखने पर सूचना होता है। सुनने से सर्वाधिक सूचना होता है, देखने से उससे कम, और दूसरी संवेदनाओं से उससे कम सूचना संप्रेषित होता है। श्रवण से ही सर्वाधिक सूचना एक मनुष्य से दूसरे तक पहुँचती है।
सूचना सुन लेने, पढ़ लेने मात्र से अध्ययन नहीं है। सूचना से इंगित अर्थ को स्वीकारना अध्ययन है। सभी "सीखने" वाला ज्ञान कर्म-अभ्यास पूर्वक एक से दूसरे व्यक्ति में स्थापित होता है। "समझने" वाला ज्ञान अध्ययन पूर्वक ही एक से दूसरे व्यक्ति में स्थापित होता है।
प्रामाणिकता की स्वीकृति के साथ ही हम अध्ययन कर पाते हैं। अध्ययन कराने वाला प्रमाणित है - यह स्वीकार होने के बाद ही अध्ययन होता है। अध्ययन एकांत में नहीं है। अध्ययन प्रमाणित व्यक्ति के साथ में ही है। इसको highlite करने की ज़रूरत है। आज की दुनिया के लिए यह एक बहुत vigorous point है।
"मैं प्रमाणित हूँ" - यह आप में स्वीकृत होने पर ही आप मुझसे "प्रभावित" होते हैं। यदि यह आप में स्वीकृत नहीं होता - तो आप प्रभावित नहीं होते। प्रभावित होने से पहले आप "जिज्ञासु" बने रहते हैं। प्रभावित होने से पहले आप अध्ययन की "इच्छा" प्रकट करने तक आ जाते हैं।
अध्ययन कराने वाले की प्रामाणिकता की स्वीकृति के साथ ही आप अध्ययन कर पाते हैं।
"व्यक्ति प्रमाण" का यही आधार है।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)
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