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Wednesday, August 12, 2009

अभ्युदय और निःश्रेयस

सर्वतोमुखी समाधान ही अभ्युदय है।

विगत में (मनु-धर्म शास्त्र में) बताया गया था - चार वर्ण, चार आश्रम के अनुसार आचरण-कर्म करने से अभ्युदय है। "अभ्युदय आचरण-कर्म ही है" - यह बताया गया था। ऐसे आचरण-कर्मो से "पुण्य" होता है - यह बताया गया था। इसके साथ "स्व-धर्म" और "पर-धर्म" को बताया। स्व-धर्म के अनुसार जो कर्म होता है - उसको "अभ्युदय" बताया गया था।

समाधान अभ्युदय होगा या आचरण-कर्म अभ्युदय होगा? - आप ही बताओ!

निःश्रेयस को विगत में "अद्वैत-मोक्ष" बताया - जो है, आत्मा का परमात्मा में विलय होना और जीव का प्रकृति में विलय होना। इस तरह "अस्तित्व-विहीन मोक्ष" की बात किया। इसको "जीवन-मुक्ति" कहा। "ब्रह्म सत्य, जगत मिथ्या" - यही अद्वैत-वाद है।

सह-अस्तित्व-वाद में कहा - "भ्रम-मुक्ति ही मोक्ष है"। अपने-पराये से मुक्ति ही मोक्ष है। अपराध-मुक्ति ही मोक्ष है। मानव-परम्परा भ्रम-मुक्त होने से मोक्ष हुआ। मानव-परम्परा अपने-पराये की दीवारों से मुक्त होने से ही मोक्ष हुआ। मानव-परम्परा अपराध-मुक्त होने से ही मोक्ष हुआ।

भ्रम-मुक्ति ही निःश्रेयस है।

शरीर-यात्रा में अभ्युदय और निःश्रेयस को प्रमाणित होने की ज़रूरत है। इस प्रकार "मोक्ष" या "निःश्रेयस" शब्द की परिभाषा मैं दे पाया। भाषा जो विगत से मिली है, उसके प्रति मेरी कृतज्ञता है। भाषा नहीं होती तो कौनसी परिभाषा दे लेते? भाषा को पहले गढ़ना पड़ता! विगत से जो भाषा मिली, उसकी सार्थकता इस विधि से बनी।

मनाकार को साकार करना भौतिकवादियों और ईश्वर-वादियों ने मिल कर कर दिया। ईश्वर-वादी समय में भी आदमी खाना खाता ही रहा, कपड़ा पहनता ही रहा, मकान बनाता ही रहा। पर उसमें विज्ञान बनाम भौतिकवाद के आने से वृद्धि हुई।

अब सह-अस्तित्व-वाद के साथ हम मनः स्वस्थता को अभ्युदय और निःश्रेयस के रूप में प्रमाणित कर सकते हैं।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)

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