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Tuesday, August 25, 2009

मानव का होना और रहना

अनंत प्रकृति और असीम व्यापक के साथ मानव सोचने, समझने, और जीने योग्य इकाई है। ईश्वर-वाद ने बताया था - "ईश्वर ही दृष्टा है।" यहाँ कह रहे हैं - जीवन ही दृष्टा है। व्यापक वस्तु को समझने वाला भी जीवन ही है। और कोई उसे समझेगा नहीं... मानव ही समझेगा। मानव ही सम्पूर्ण अस्तित्व को समझेगा और स्वयं को समझेगा। फलस्वरूप ही मानव का अस्तित्व में व्यवस्था में जीने का बात हो पाता है। अभी हम न स्वयं को समझे हैं, न अस्तित्व को समझे हैं - इसलिए हमारा व्यवस्था में जीने का रास्ता ही बंद हो गया था। जब से मानव धरती पर प्रकट हुआ है, वह न स्वयं को समझा है, न अस्तित्व को समझा है।

मानव ने अपनी कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता के आधार पर मानव-परम्परा के "होने" को स्वीकार लिया है। उसी आधार पर शिक्षा, संविधान, व्यवस्था के नाम पर कुछ न कुछ मनुष्य करता ही है। लेकिन मानव-परम्परा को कैसे "रहना" है - यह अभी तक स्वीकारना नहीं बना है। मानव-परम्परा के "रहने" के स्वरूप को मानव द्वारा स्वीकारने के लिए ही मध्यस्थ-दर्शन के अध्ययन का प्रस्ताव है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)

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