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Tuesday, August 25, 2009

स्वीकारना, समझना, और जीना अलग-अलग नहीं हैं.

आपकी पूरी बात एक बार मेरे view में तो आ गयी है - लेकिन "आत्म-सात" नहीं हुई है। आपका कहना है - "समझ के करो!" मैं कहता हूँ - "मैं समझूंगा तभी करूंगा!" इस तरह मेरी गाड़ी फंस सी गयी है!

समझेंगे तो जीना ही पड़ेगा! आपकी प्राथमिकता "समझना" है, "जीना" नहीं है - आप यह कह रहे हो! आपने जो मुझे पत्र लिखा था - उसका सार भी कुछ वैसे ही है।

हाँ

ठीक है! आप जो कह रहे हो, उसे ही रखो... समझ के ही जीने की बात करेंगे।

क्या मेरा स्वयं को जागृत-परम्परा में मानना सही होगा? आप अपने "जागृत" होने का सत्यापन करते हैं, मैं जागृत होना चाहता हूँ।

हाँ। मानव जागृत-परम्परा में ही वैभव-शील है।

आपके प्रस्ताव को लेकर अब कोई "प्रश्न" तो नहीं है। प्रश्न नहीं है - पर आपसे बात करते हैं तो लगता है जैसे हम प्रश्न कर रहे हैं। इस तरह प्रश्न है भी, और नहीं भी है ...

इस बात पर "प्रश्न" तो किया नहीं जा सकता। इसको आप समझे हैं, या नहीं समझे हैं? इसको आप जिए हैं, या नहीं जिए हैं? इन दो जगह में आप से बात हो सकता है - यहाँ आ गए हम!

इस बात का "श्रवण" आपमें करीब-करीब पूरा हुआ है। इसको समझने की इच्छा आपमें बलवती हुई है - क्या मैं ऐसा मानू?

हाँ!

हर वस्तु को "जीने" के अर्थ में समझना होगा; और बीच में "अनुभव" नाम का एक pulse होता ही है। जीने के अर्थ में सुनने पर अनुभव होता ही है। तर्क की आवश्यकता अब कम हो गयी, जीने के अर्थ में ही हर बात को अब समझेंगे। स्वीकारना, समझना, और जीना अलग-अलग नहीं हैं।

स्वीकारने के बारे में लोक-मानस में चार स्तर हैं।
(१) शब्द जो सुना, वह सुनने में अच्छा लगता है - यह पहले स्तर की स्वीकृति है।
(२) ये अच्छी बात कह रहे हैं, यह हमको चाहिए - यह दूसरे स्तर की स्वीकृति है।
(३) ये अच्छी बात कह रहे हैं, यह हमको चाहिए, हम इसको समझना चाहते हैं - यह तीसरे स्तर की स्वीकृति है।
(४) चौथे स्तर की स्वीकृति है - हमें इसी को "जीना" है। यही परम है।

इन चार स्तरों पर स्वीकृतियां होती हैं। आपके अनुसार आप किस स्तर पर पहुंचे हैं?

तीसरे स्तर पर मैं अपने को मानता हूँ।

समझने को लेकर - क्या हम समझ गए हैं, और क्या समझना अभी शेष है, इस पर चला जाए। समझने के मुद्दे पाँच ही हैं - (१) सह-अस्तित्व क्यों है, कैसा है को समझना। (२) सह-अस्तित्व में विकास-क्रम क्यों है, कैसा है को समझना। (३) सह-अस्तित्व में विकास क्यों है, कैसा है को समझना। (४) सह-अस्तित्व में जागृति-क्रम क्यों है, कैसा है को समझना। (५) सह-अस्तित्व में जागृति क्यों है, कैसा है को समझना।

रचना-क्रम में विकास की सर्वोपरि स्थिति में है - मानव-शरीर। परमाणु में विकास की सर्वोपरि स्थिति है - जीवन। मानव-शरीर के घटित होने के लिए पीछे की सभी रचनाएँ हैं। पदार्थ-अवस्था की रचनाएँ (मृद, पाषाण, मणि, धातु) भी उसी क्रम में हैं।

अस्तित्व में प्रकटन क्रम में चार अवस्थाओं का प्रकटन हुआ। हर अवस्था की परम्परा बनने की विधि रही। इसी क्रम में मनुष्य का प्रकटन धरती पर हुआ। "मानव-शरीर एक परम्परा के स्वरूप में बने रहने के लिए धरती पर प्रकट हुआ है।" यदि यह बात आप को मूल रूप में समझ आता है तो आप में "जीने की इच्छा" बन जाती है। "मुझे जीना चाहिए!" - यह आप में निश्चयन हो जाता है। फ़िर मानव-परम्परा के "जीने" के लिए जो "समझ" की आवश्यकता है - उसको "स्वीकार" करने के लिए आप प्रयास-रत होते हो।

स्वीकारना, समझना, और जीना अलग-अलग नहीं हैं।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)

3 comments:

Gopal Bairwa said...

Hi Rakesh,

समझने को लेकर - क्या हम समझ गए हैं, और क्या समझना अभी शेष है, इस पर चला जाए। समझने के मुद्दे पाँच ही हैं - (१) सह-अस्तित्व क्यों है, कैसा है को समझना। (२) सह-अस्तित्व में विकास-क्रम क्यों है, कैसा है को समझना। (३) सह-अस्तित्व में विकास क्यों है, कैसा है को समझना। (४) सह-अस्तित्व में जागृति-क्रम क्यों है, कैसा है को समझना। (५) सह-अस्तित्व में जागृति क्यों है, कैसा है को समझना।

Up to the point #3 we can understand. But it is hard to understand 4 and 5. Do you have an answer for this from Baba ? If not Could you plz. provide your own understanding on that ?

Thanks,
Gopal.

Rakesh Gupta said...

Hi Gopal,

I will try to dig out some dialogue in which baba talked about it... here's what my understanding on this is, so far...

Jagruti-kram indicates भ्रांत पद चक्र or the illusion-plane. All animal-kind and 'humankind in illusion' gets counted in jagruti-kram. This is also called animal-consciousness. While in animals, jeevan's living with animal-consciousness still leads to harmony... In humans, living with animal-consciousness leads to disharmony, unfulfillment. This unfulfillment itself builds the natural-expectation for happiness or harmony in humankind. Above is the answer of jagruti-kram kaise hai? Jagruti-kram kyon hai? - the answer to this is, it is there due to natural-inclination in existence for completeness.

Jagruti indicates kriya-poornta and aacharan-poornta. kriya-poornta implies anubhav. which is when the dormant activities of self get activated. aacharan-poornta implies pramaan or self-realization in living. Above is answer of jagruti kaise hai? jagruti kyon hai? the answer again is the natural-inclination in existence for further emergence of harmony. jagruti is the ultimate expression of existence.

best, Rakesh...

Anand Damani said...

Another way to understand this could be to look at the various activities we perform as human beings. In human activities do not give us moral satisfaction and create pain within. On a superficial level we resort tu to our understanding received from education culture tradition and convince yourself that it is in the best interest of everyone. In reality we know that the activity is in human. In continuity always being too only perform human activities is the sequence and what we can come term as Jagriti.