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Wednesday, August 19, 2009

अनुभव-मूलक विधि से मनुष्य जीने में प्रमाणित होता है.

सम्पूर्ण वस्तु अस्तित्व में हैं। सम्पूर्ण अस्तित्व सह-अस्तित्व स्वरूप में है। सह-अस्तित्व ही चार अवस्थाओं के रूप में प्रकट है। सह-अस्तित्व में जो वस्तुएं हैं, उनका "नामकरण" मनुष्य ही करता है। नाम को हम परस्पर सुनते हैं। नाम सुनकर अस्तित्व में वस्तु को पहचानते हैं। यह प्रक्रिया हर व्यक्ति में निहित है। मानव ने संवेदनशीलता के लिए इस प्रक्रिया का प्रयोग किया और सफल हुआ। अब संज्ञानीयता के लिए इसका प्रयोग करना है, और सफल होना है। इतना ही बात है।

संवेदनशीलता से हम सफल होंगे, या संज्ञानीयता से सफल होंगे - पहले इसको निर्णय कर लो! जितना आपको तर्क करना है, वह कर लो! संवेदनशीलता से सफल नहीं हो सकते हैं - यदि यह निष्कर्ष आपमें निकलता है, तो संज्ञानीयता के लिए आपकी झकमारी है!

संवेदनशीलता की सीमा में अपराध-मुक्त होना बनता नहीं है। संवेदनशीलता की सीमा में अपने-पराये की दीवारों से मुक्त होना बनता नहीं है।

संवेदनशीलता पूर्वक जीवन में (मन में ) आस्वादन होता है, (वृत्ति में) विचार होता है, और (चित्त में) इच्छाएं होती हैं। इस प्रकार मन में जो आस्वादन होता है, उसमें संवेदनाओं से सुख "भासने" की बात होती है - लेकिन उसमें सुख की निरंतरता नहीं बन पाती। बारम्बार आस्वादन करने के लिए संवेदनाओं में मन टिका रहता है। इस प्रकार वृत्ति में जो विचार होते हैं - वे प्रिय-अप्रिय, हित-अहित, लाभ-अलाभ दृष्टियों से ही होते हैं। इस प्रकार चित्त में जो चित्रण होता है, वह सुविधा-संग्रह के अर्थ में ही होता है।

संवेदनशीलता से यदि हम छूटते हैं तो सीधे अनुभव में ही पहुँचते हैं। बीच में कहीं रुकते नहीं हैं। मध्यस्थ-दर्शन के प्रस्ताव से पहले तपस्या पूर्वक अनुभव में पहुँचने की बात कही गयी थी। यहाँ मैं कह रहा हूँ - अध्ययन पूर्वक हम अनुभव तक पहुँच सकते हैं। अध्ययन पूर्वक संज्ञानीयता बोध होता है। संज्ञानीयता बोध होने के बाद अनुभव होता ही है। संज्ञानीयता है - अस्तित्व में वस्तु का बोध। शब्द को हम व्यक्ति से सुनते हैं। शब्द के अर्थ के रूप में अस्तित्व में वस्तु है। अर्थ का बोध होता है। शब्द का स्मरण रहता है। चित्रण में स्मरण है। शब्द का स्मरण अर्थ का बोध होते तक आवश्यक है।

संवेदनशीलता पूर्वक हम विचार करते हैं, या अनुभव पूर्वक (संज्ञानीयता पूर्वक) विचार करते हैं। ये दो ही स्थितियां होती हैं। तीसरी कोई स्थिति नहीं है। अनुभव मूलक विधि से मनुष्य जीने में प्रमाणित होता है। संवेदनशीलता पूर्वक मनुष्य जीने में प्रमाणित होता नहीं है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)

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