तुलन या तौलने की बात वृत्ति में रखा हुआ है। भ्रमित-स्थिति में न्याय, धर्म, और सत्य दृष्टियों से तौलने का "वस्तु" वृत्ति में नहीं रहता। शरीर मूलक दृष्टियों (प्रिय, हित, लाभ) से तौलने पर यह "वस्तु" वृत्ति में आता नहीं है।
सह-अस्तित्व प्रस्ताव शब्दों में सुनने से इतना भारी उपकार हो जाता है - सह-अस्तित्व "होने" के रूप में स्वीकार हो जाता है। न्याय, धर्म, सत्य "कुछ है" - यह स्वीकार हो जाता है। इस आधार पर स्वयं को जीने में यह जाँचना शुरू करते हैं - कहाँ तक न्याय है? कहाँ तक समाधान है? कहाँ तक सत्य है? इस तरह जब जाँचना शुरू करते हैं, तो शब्द पर्याप्त नहीं होता।
जिज्ञासा पूर्वक "सत्य" शब्द से सह-अस्तित्व जो इंगित है - वहाँ हम पहुँच जाते हैं। इस तरह सह-अस्तित्व चित्त में चिंतन-क्षेत्र में साक्षात्कार होता है। साक्षात्कार होने पर बुद्धि में बोध होता ही है। अनुभव होने पर बुद्धि में पुनः अनुभव-प्रमाण बोध होता है। अनुभव-प्रमाण बोध होने पर बुद्धि चिंतन के लिए "खुराक" प्रस्तुत कर दिया। जिससे अनुभव-मूलक विधि से चित्रण होने लगा। जैसे - मैं अभी आपके संयोग में आपकी जिज्ञासा के आधार पर कर रहा हूँ! ऐसे अनुभव-मूलक चित्रण करने का प्रयोजन है - सामने व्यक्ति को बोध कराना।
जैसे- मैंने अनुभव-मूलक विधि से चित्रण करते हुए आपके सम्मुख कुछ शब्दों को प्रस्तुत किया। उन शब्दों के अर्थ में जाने की आपकी आवश्यकता या जिज्ञासा बन गयी। जैसे - "पानी" एक शब्द है, जिससे मैं कहता हूँ - प्यास बुझती है। यह सुन कर पानी वस्तु को पहचानने की आपमें जिज्ञासा बन गयी। अब आप पानी वस्तु को अस्तित्व में पहचान सकते हैं, अपनी प्यास बुझा सकते हैं। उसी तरह से - "सत्य" एक शब्द है जो सह-अस्तित्व स्वरूप में वस्तु है। सह-अस्तित्व क्या है? व्यापक में संपृक्त प्रकृति है। सत्ता व्यापक है। प्रकृति एक-एक अनंत इकाइयाँ हैं। अनंत स्वरूप में प्रकृति और व्यापक स्वरूप में सत्ता साक्षात्कार होने पर बोध, और बोध होने पर अनुभव सिद्ध हो जाता है।
अनुभव ही प्रमाण है।
बुद्धि में संकल्प स्वयं (जीवन) को प्रमाणित करने की "दवाई" है। बुद्धि में संकल्प ही प्रमाणित करने की "पुडिया" है। अनुभव-प्रमाण बोध बुद्धि में होने पर चित्त में चिंतन शुरू होता है। चिंतन ही अनुभव-मूलक चित्रण का पृष्ठ-भूमि है। चित्त में चिंतन क्रिया आवश्यक रहा ताकि वृत्ति संतुष्ट हो सके - "यही न्याय है!", "यही धर्म है!", "यही सत्य है!" इस तरह वृत्ति के संतुष्ट होने के लिए आत्मा में अनुभव आवश्यक रहा। इस तरह अनुभव-मूलक विधि से वृत्ति में सत्य घंटी बजाने लगा। धर्म घंटी बजाने लगा। न्याय घंटी बजाने लगा। फलस्वरूप - संवेदनशीलता से जो क्रियाकलाप होता रहा, वह सब "नियंत्रित" हो गया। संवेदनाओं का यह नियंत्रण स्वयं-स्फूर्त हुआ। इसके लिए कोई बाहरी बल नहीं लगाना पड़ा। कोई कायदा-क़ानून नहीं लगाना पड़ा। प्राकृतिक रूप में संवेदनाएं अनुभव-मूलक विधि से नियंत्रित हो जाती हैं। न्याय, धर्म, और सत्य मूलक इन विचारों से जो मूल्य स्पष्ट हुए, उनका आस्वादन मन में हो गया। मन में हुए मूल्यों के आस्वादन के अनुसार हम चयन करने लगे। इस तरह स्वयं को प्रमाणित करने के लिए एक तरफ़ बुद्धि में अनुभव-मूलक "संकल्प" रहता है, दूसरी ओर मन में अनुभव-मूलक "चयन" रहता है। ये दोनों मिल कर अनुभव-प्रमाण की परम्परा बनती है।
इस तरह -
शिक्षा विधि से अध्ययन, अध्ययन विधि से बोध, बोध विधि से अनुभव, अनुभव विधि से प्रमाण, अनुभव-प्रमाण विधि से बोध व संकल्प, बोध व संकल्प विधि से चिंतन व चित्रण, चिंतन व चित्रण विधि से तुलन व विश्लेषण, अनुभव-मूलक तुलन व विश्लेषण के आधार पर आस्वादन और चयन।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)
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