मनुष्य किसी भी इकाई को सम्पूर्णता के स्वरूप में समझ सकता है।
समझना आवश्यक है या नहीं? पहले इस बात को तय करना आवश्यक है। इसका उत्तर हर व्यक्ति - चाहे ज्ञानी हो, अज्ञानी हो, विज्ञानी हो - के साथ यही आता है, "समझना आवश्यक है।" समझने की आवश्यकता अस्तित्व में केवल मनुष्य को ही है। पत्थर, पेड़-पौधे, जीव-जानवर को अस्तित्व के स्वरूप को समझने की आवश्यकता नहीं है। "मनुष्य के लिए अस्तित्व को समझना आवश्यक है" - इस सूत्र के आधार पर हम आगे बात करेंगे।
कैसे समझते हैं? इस पर चलते हैं। आंखों से हमको दिखाई देता है। आंखों के सामने जो १८० अंश तक की परिधि में आता है - उसको "दृष्टि-पाट" कहते हैं। कुल ३६० अंश में से अधिकतम १८० अंश ही दृष्टि-पाट में आता है। इस तरह आधा दृश्य ही आँखों पर प्रतिबिंबित होता है। इस दृष्टि-पाट में हर दृग-बिन्दु आकार और आयतन के रूप में आंखों पर प्रतिबिंबित होता है।
"घन" आंखों द्वारा समझ में आता नहीं है। तब हम गणित का सहारा लेते हैं। गणितीय भाषा द्वारा हम घन को भी जान लेते हैं, आकार-आयतन की सम्पूर्णता को भी जान लेते हैं। आकार-आयतन की सम्पूर्णता घन में ही समझ आती है। घन के आधार पर वस्तुओं को पहचानने के तरीके हम अपना चुके हैं, कार्य-व्यवहार में ला चुके हैं। आकार-आयतन-घन को समझने में मनुष्य समर्थ हुआ है, और परम्परा के रूप में स्वीकारा है।
गणित आँखों से अधिक, समझ से कम होता है। गणित सम और विषम गतियों को आंकलित करता है। मध्यस्थ गति को गणित छू भी नहीं पाता। जिस तरह आँख से घन को नहीं समझा जा सकता, उसी तरह गणित से मध्यस्थ-गति को नहीं समझा जा सकता। मध्यस्थ गणित की सीमा से बाहर की बात है। वस्तु का "होना" और "व्यवस्था में बने रहना" उसका मध्यस्थ-गुण है - जो गणित के वश के बाहर की बात है।
कारणात्मक भाषा के प्रयोग से अध्ययन पूर्वक "मध्यस्थ" मनुष्य को समझ में आता है। पूरा दर्शन "मध्यस्थ-दर्शन" है। मध्यस्थ-दर्शन का मतलब है - वर्तमान को समझना = अस्तित्व सहज व्यवस्था को समझना। अस्तित्व में तीन तरह की गतियां हैं - सम, विषम, और मध्यस्थ। जैसे - पैदा होना (सम), मर जाना (विषम), और इन दोनों के बीच में "जीना" - यह मध्यस्थ है। हर अवस्था में सम, विषम, और मध्यस्थ गतियों को पहचाना जा सकता है। किसी अवस्था की मध्यस्थ-गति उस अवस्था के "नित्य बने रहने" या "व्यवस्था में रहने" का स्वरूप है। यह मनुष्य को समझ में आता है तो मनुष्य को अपने स्वयं के व्यवस्था में रहने का स्वरूप भी स्पष्ट होता है, बाकी अवस्थाओं के बने रहने का स्वरूप भी स्पष्ट होता है।
यही वह "समझदारी" है, जिसकी सभी मनुष्यों को आवश्यकता है।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)
1 comment:
sam, visham - here is your force of push and pull. Madhyastha is the steady state achieved by the object or entity in between these two forces of push and pull, to exist means to be in this steady state. (it is really an analogous dynamic, steady state between a 0 and a 1 which is why Baba calls it madhyastha gati and says it is beyond mathematical definitons or binary logic). This is the natural state and no object or entity would of its own accord seek to disturb this state. While other entities or objects belonging to padaartha avastha or praan or jeev avastha are incapable of disturbing this state on their own due to lack of free will and their own thought process, it is the human alone who is capable of disturbing or manipulating this state. An incorrect or incomplete understanding of an object or entity's placement in the heirarchy of relationships in the whole is defined as samasyaa and a human who acts on the basis of this incomplete understanding disturbs the steady or natural state of that object or entity. To seek to return to that steady state is samaadhaan and this is the natural behavior of any object or entity in the universe including the human being.
This in brief is the gist of MD.
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