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Wednesday, August 12, 2009

अस्तित्व में स्वयं-स्फूर्तता

अस्तित्व में चारों अवस्थाएं स्वयं-स्फूर्त विधि से प्रकट हैं।

स्थिति-पूर्ण सत्ता में स्थिति-शील प्रकृति संपृक्त है। पूर्णता के अर्थ में प्रकृति सत्ता में संपृक्त है।

भौतिक-रासायनिक वस्तुओं की गणना की जा सकती है। हर वस्तु अपनी स्थिति में "एक" होता है। जैसे- एक परमाणु अंश, एक परमाणु, एक अणु, एक प्राण-सूत्र, एक प्राण-कोषा, एक धरती। ये सब एक-एक की संज्ञा में आते हैं।

प्रत्येक "एक" अपने वातावरण सहित "सम्पूर्ण" है। इसके प्रमाण में ही - "त्व सहित व्यवस्था और समग्र व्यवस्था में भागीदारी" गवाहित होती है। हरेक "एक" अपनी स्थिति में "सम्पूर्णता" में ही होता है। किसी "बाहरी" शक्ति की अनुकम्पा से इकाइयाँ चालित नहीं हैं। सत्ता में सम्पृक्तता वश इकाइयाँ "ऊर्जा-संपन्न" हैं। ऊर्जा-संपन्न होने से वे "बल-संपन्न" हैं। बल-संपन्न होने से वे "क्रियाशील" हैं। इस तरह - अस्तित्व में "कार्य" और "कारण" अविभाज्य है। और "फल-परिणाम" निश्चित है। अस्तित्व में नियम है। नियम पूर्वक ही अस्तित्व में "विकास" है, नियम पूर्वक ही अस्तित्व में "ह्रास" है, नियम पूर्वक ही अस्तित्व में "परम्परा" है।

अस्तित्व में स्वयं-स्फूर्त प्रकटन है। पदार्थावस्था से प्राण-अवस्था स्वयं-स्फूर्त प्रकट होता है। प्राण-अवस्था से जीव-अवस्था स्वयं-स्फूर्त प्रकट होता है। जीव-अवस्था से ज्ञान-अवस्था स्वयं-स्फूर्त प्रकट होता है। मूलतः सभी प्रकटन पदार्थ-अवस्था से ही है। पदार्थ-अवस्था में प्राण-अवस्था का भ्रूण तैयार हुआ। प्राण-अवस्था में जीव-अवस्था का भ्रूण तैयार हुआ। जीव-अवस्था में ज्ञान-अवस्था (मानव) का भ्रूण तैयार हुआ। पिछली स्थिति में जो अगली स्थिति के लिए जो तैय्यारी होती है - उसी को हम "भ्रूण" कह रहे हैं। इसी क्रम में चारों अवस्थाएं इस धरती पर स्थापित हुई। मनुष्य के प्रकटन के बाद मनुष्य का भी चारों अवस्थाओं के साथ संतुलित रहने का बात हुआ। अस्तित्व में चारों अवस्थाएं स्वयं-स्फूर्त विधि से प्रकट हैं, क्रियाशील हैं।

प्रश्न: पदार्थ-अवस्था जब स्वयं-स्फूर्त विधि से काम कर सकता है, तो आदमी को स्वयं-स्फूर्त होने में क्या तकलीफ है?

उत्तर: मनुष्य ने उस ओर प्रयत्न ही नहीं किया। उल्टे चारों अवस्थाओं को अपने भोग की वस्तु मान लिया। भोगने के लिए संघर्ष भावी हो गया। आदमी अपराध में फंस गया। इस तरह संघर्ष में लगने से, अपराध में लगने से - मनुष्य "सत्य को समझने" में असमर्थ रहे। यही आदमी के लिए स्वयं-स्फूर्त जी पाने में तकलीफ है। सत्य को समझे बिना मनुष्य का चारों अवस्थाओं के साथ संतुलित और स्वयं-स्फूर्त जी पाना सम्भव नहीं है।

प्रश्न: आदमी को अपराध में फंसाया किसने?

उत्तर: ईश्वर-वाद और भौतिकवाद ने। दोनों मिल कर आदमी-जात को अपराध में फंसाया। सह-अस्तित्व-वाद इन दोनों के विकल्प में मनुष्य-जाति के लिए अपराध-मुक्ति के लिए एक अध्ययन-गम्य प्रस्ताव है।

प्रश्न: अस्तित्व में स्वयं-स्फूर्तता को मैं स्वयं में कैसे देख सकताहूँ?

उत्तर: मनाकार को साकार करना मनुष्य का स्वयं-स्फूर्त वैभव है। आप कोई डिजाईन बनाते हो, उससे अच्छा डिजाईन आप में अपने-आप से उभर आता है। चाहे वह कपड़ा बनाने का डिजाईन हो, चाहे सड़क-मकान बनाने का डिजाईन हो, या कोई यंत्र बनाने का डिजाईन हो। यह आपके चित्रण और विचार के योगफल में होता है। इस स्वयं-स्फूर्तता को आप स्वयं में अभी जांच सकते हैं। मनाकार को साकार करने के भाग में मनुष्य अपने इतिहास में स्वयं-स्फूर्त आगे बढ़ता आया। लेकिन मनः-स्वस्थता न होने के कारण "अपराध" में फंस गया।

मनाकार को साकार करना कोई अपराध नहीं है। मनाकार को साकार करना मनुष्य का स्वयं-स्फूर्त वैभव है। मनाकार को साकार करने से बनी वस्तुओं के व्यापार करने में अपराध है। दूसरे, मनाकार को साकार करने के लिए कच्चा माल प्राप्त करने के लिए प्रकृति का जो शोषण है - उसमें अपराध है। मनः स्वस्थता पूर्वक मनुष्य अपराध-प्रवृत्ति से मुक्त होता है। समाधान ही मनः स्वस्थता का प्रमाण है। समझदारी से समाधान होता है। समाधान पूर्वक मनुष्य का स्वयं-स्फूर्त जीना बन जाता है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)

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