भ्रमित-मनुष्य में भी वृत्ति में न्याय, धर्म, और सत्य की "सहज-अपेक्षा" रहती है।
न्याय, धर्म, और सत्य का मध्यस्थ-दर्शन का प्रस्ताव शब्द के रूप में विचार में पहुँचता है। इससे वृत्ति में जो पहले से "अपेक्षा" थी उसकी पुष्टि हुई।
सह-अस्तित्व के प्रस्ताव की सूचना का परिशीलन करने के लिए चित्त में गए। चित्त में परिशीलन करने से सह-अस्तित्व साक्षात्कार हुआ।
चित्त में सह-अस्तित्व साक्षात्कार होने पर तुंरत ही बुद्धि में न्याय, धर्म, और सत्य का बोध होता है।
बुद्धि में जब बोध होता है तो स्वतः आत्मा में अनुभव हो जाता है।
आत्मा में अनुभव होने पर बुद्धि में अनुभव-प्रमाण बोध होता है। इससे अनुभव को प्रमाणित करने का संकल्प बनता है। अनुभव-प्रमाण बोध के आधार पर चिंतन हुआ। फल-स्वरूप अनुभव-मूलक चित्रण हुआ। वृत्ति अनुभव-प्रमाण विधि से संतुष्ट हो गयी। फल-स्वरूप अनुभव-मूलक विश्लेषण हुआ। इस विश्लेषण के अनुरूप मन में मूल्यों का आस्वादन हुआ - जिसके लिए आदि-काल से मनुष्य प्यासा रहा। मन तृप्त हुआ, फलस्वरूप अपनी तृप्ति को प्रमाणित करने के लिए चयन शुरू किया - जिसमें समाधान निहित हुआ, सत्य निहित हुआ, न्याय निहित हुआ। इस तरह न्याय, धर्म, और सत्य तीनो प्रमाणित होने लगे!
बुद्धि में अनुभव-मूलक संकल्प और मन में अनुभव-मूलक चयन - इन दोनों के योगफल में प्रमाण मानव-परम्परा में प्रवाहित होता है। अनुभव होने के बाद प्रमाणित होने का हमारा जो प्रवृत्ति बनता है, उसके अनुसार हमारा आचरण मानवीयता पूर्ण बनता है। मानवीयता पूर्ण आचरण बनता है, तो उसके आधार पर मानवीय संविधान बनता है। मानवीय संविधान बनता है तो मानवीय शिक्षा का स्वरूप निकलता है। मानवीय शिक्षा का स्वरूप निकलता है तो मानवीय व्यवस्था का स्वरूप निकलता है। इस तरह अनुभव फैलता चला जाता है।
अनुभव होने के बाद आचरण बनेगा या नहीं? अनुभव होने के बाद में आचरण में न आए - ऐसा कोई बाँध नहीं है। अनुभव आचरण में आना ही है!
यह यदि हमको समझ में आता है, इसके प्रति निष्ठां होता है, तो इसको अनुभव करने में क्या तकलीफ है? इसमें आपका क्या नुक्सान होता है? क्या आपका घट जाता है, आप ही सोच लो!
इतने को अच्छे से आप अपने में सुदृढ़ बनाओ, यह यदि आपने प्रमाणित करना शुरू कर दिया तो जो होना है, वह हो ही जाएगा। स्वयं में प्रमाणित करना शुरू करते हैं तो उससे जो आगे की प्रक्रिया है वह होगा ही आगे। उसके लिए हमको अलग से कुछ सोचने की ज़रूरत नहीं है। इस तरह छोड़ने-पकड़ने का झंझट ही ख़त्म हो गया! अभी "करो! नहीं करो!" वाले तरीके में "इसको छोडो, उसको पकडो!" वाला झंझट बना ही था। वह झंझट ही ख़त्म हो गया अब!
समझ के करने जाते हैं तो प्रमाण प्रवाहित होता ही है!
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)
2 comments:
From what I have seen thus far, all those who have claimed or have thought to have achieved the Self Realized state continued to advocate praying to a representation of God be it Allah,Shiva,Vishnu or a God by any other name in order to strengthen the mind and keep it balanced on this pivot. In Vedic religion Brahma is explained as the origin of Existence however one does nor ever pray to Brahma.
Is there a concept of praying in MD? Does Babaji offer any prayers everyday?
hi,
answer to both your questions is - No.
regards, Rakesh.
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