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Friday, July 17, 2009

उत्पादन और विनिमय

मानव-चेतना से संपन्न होने पर व्यवस्था का जो स्वरूप निकलता है उसे "मानवीय व्यवस्था" कहा।

मानवीय व्यवस्था में:
(१) हर परिवार समाधान-समृद्धि को प्रमाणित करने के क्रम में एक उत्पादक-इकाई है।
(2) उत्पादक अपनी "आवश्यकता" के अनुसार उत्पादन करता है - चाहे खेत में, चाहे कर्म-शाला में। मानवीयता संपन्न होने पर आवश्यकताएं निश्चित हो जाती हैं। मानवीयता संपन्न परिवार की निश्चित आवश्यकताएं होती हैं - शरीर पोषण, संरक्षण, और समाज-गति में भागीदारी करने के लिए।
(३) उत्पादक अपनी उत्पादित वस्तु का मूल्यांकन स्वयं करता है।

अभी की अमानवीय स्थिति में: -
(१) उत्पादक व्यापारिक संस्थानों में एक कर्मचारी के रूप में रहता है।
(2) बाज़ार आवश्यकता (कितना उत्पादन करना है) का निर्धारण करता है। इससे उत्पादक की उत्पादन करने की स्वतंत्रता नहीं है।
(३) उत्पादक अपनी उत्पादित वस्तु का मूल्यांकन कर ही नहीं पाता। परिस्थिति के अनुसार व्यापारी या बाज़ार उत्पादित वस्तु की कीमत तय कर देता है। इससे होने वाली असंतुष्टियाँ कभी-कभी घातक भी सिद्ध हो जाती हैं।

अमानवीय स्थिति में इस तरह उत्पादक उत्पादन करने और मूल्यांकन करने दोनों में परतंत्र है।

अमानवीय स्थिति में पैसे लगाने वाला अलग व्यक्ति होता है, कार्य करने वाला दूसरा व्यक्ति रहता है। कार्य करने में - मैनेजमेंट वाला अलग, और उत्पादन कार्य करने वाला कर्म-चारी के रूप में अलग। मैनेजमेंट के भी कई स्तर बना दिए। उत्पादित वस्तु की गुणवत्ता का निर्धारण भी स्वयं-स्फूर्त नहीं है। बाज़ार ही उत्पादों की गुणवत्ता को तय करता है - पैसे के आधार पर। मार्केट-शेयर को पैसे के आधार पर तोला जाता है। मार्केट-शेयर के आधार पर व्यापारी की अर्हता को पहचाना जाता है। ग्राहकों से जिन उत्पादों की मांग रहती है - वे भी सारे रूचि मूलक ही होते हैं। "ठीक लगने" के आधार पर खरीद होती है।

मानवीय व्यवस्था में:

(१) मूल्यांकन और विनिमय सामन्याकान्क्षा और महत्त्वाकांक्षा संबन्धी वस्तुओं का होता है।
(२) श्रम मूल्य के आधार पर वस्तु-मूल्य का निर्धारण होता है। वस्तु में उपयोगिता और कला मूल्य के आधार पर उसके श्रम-मूल्य का निर्धारण होता है।
(३) श्रम मूल्य के आधार पर दो उत्पादक परिवारों में वस्तुओं का लाभ-हानि मुक्त विनिमय होता है।

बिना प्रतीक मुद्रा के वस्तुओं के सीधे विनिमय की बात पहले रही थी - लेकिन उसमें श्रम-मूल्य के आधार पर वस्तु-मूल्य को पहचानने की बात नहीं थी। इसलिए वह वस्तु-विनिमय भी व्यापारिक सिद्ध हो गया। लाभ विधि से यह असफल हो गया।

श्रम मूल्य विधि से मूल्यांकन मानव-चेतना विधि से ही होगा। जीव-चेतना विधि से नहीं।

जीव-चेतना में उत्पादन और विनिमय के नाम पर केवल शोषण के contracts होते हैं।

अनुभव मूलक विधि से ही मानवीय व्यवस्था स्पष्ट होती है।
शरीर मूलक विधि से लाभ मूलक व्यापार ही होता है।

लाभ-मूलक व्यापार में जो ज्यादा चतुर हैं, वे ज्यादा व्यापार कर पाते हैं। जो कम चतुर हैं, वे कम व्यापार कर पाते हैं।

सूत्र रूप में - परिवार की आवश्यकता के अनुसार उत्पादन, श्रम-मूल्य के आधार पर विनिमय। इस सूत्र की व्याख्या परिवार-समूह के बीच में, फ़िर ग्राम के स्तर पर, फ़िर मंडल के स्तर पर, फ़िर राज्य के स्तर पर, और अंततोगत्वा विश्व-स्तर पर।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)

2 comments:

Gopal Bairwa said...

Dear Rakesh bahi,

One question. How do we factor into innovation here. Let us say one person uses old methods to produce and takes two days for same thing which another person uses some advanced techniques and machines etc and produces quickly. Does the "shram mulya" still same for both. As per following sentence , the answer is yes.

(२) श्रम मूल्य के आधार पर वस्तु-मूल्य का निर्धारण होता है। वस्तु में उपयोगिता और कला मूल्य के आधार पर उसके श्रम-मूल्य का निर्धारण होता है।

Please confirm.

Regards,
Gopal.

Rakesh Gupta said...

Gopal Bhai

Innovation would not be copyrighted in this Order. Therefore innovations or automation would get universalized.

श्रम मूल्य के आधार पर वस्तु-मूल्य का निर्धारण होता है। vastu me uska mulya rahta hee hai. human effort is to make it usable or easier to use. there is no payment for prakrutik vastu to nature. also, the nature is not under ownership of human being. fruits, wood, water etc are the gift of nature to humankind. human being is only obligated to ensure the perenniality of their source. the exchange is only of shram, and only among human beings.