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Saturday, July 11, 2009

काल

मनुष्य ने किसी आवर्तनशील क्रिया के आधार पर काल का गणना शुरू किया। जैसे - धरती के अपनी धुरी पर सूर्योदय से सूर्योदय तक घूर्णन करना एक आवर्तनशील क्रिया है। सूर्योदय से सूर्योदय तक की धरती की क्रिया की अवधि को "एक दिन" कहा। उसके आधार पर कितने समय में पेड़ बड़ा होता है, यह मकान कितना पुराना है - यह सब गणना करना शुरू किया। काल की गणना मूलतः धरती की क्रिया की गणना ही है। उसमें कोई तकलीफ भी नहीं है।

फ़िर मनुष्य ने विखंडन विधि से गणित करना शुरू किया। जैसे - धरती को भाग-विभाग करके पहचानना, किसी बड़ी राशि को १०-५० भागों में बांटना आदि। इतने तक में कोई तकलीफ नहीं थी। उसी विखंडन विधि से गणित करने के क्रम में एक दिन के २४ भाग करके "एक घंटा" को गणना किया। एक घंटे के ६० भाग करके "एक मिनट" का गणना किया। एक मिनट के ६० भाग करके "एक सेकंड" का गणना किया। उसके भी भाग विभाग करते चले गए, अंत में शून्यवत संख्या में काल को ले गए। काल है ही नहीं - कह दिया। जबकि जिस आधार पर समय को पहचाना था - वह क्रिया (धरती का अपनी धुरी पर घूमना) निरंतर चल ही रहा है। धरती अनादि काल से सूर्योदय से सूर्योदय तक क्रिया कर ही रहा है, अभी भी कर रहा है, आगे भी करता रहेगा। आवर्तनशील क्रिया का reference छोड़ कर जो वास्तविकता देखने गए तो "अपनी चाहत के अनुसार" विज्ञानियों ने निष्कर्ष निकाल लिए। काल को शून्यवत करके विज्ञानी अस्तित्व को भुलावा दे दिए। वस्तु को छोड़ दिए, गणित को पकड़ लिए। गणित लिखने में आता है, गणना करने में आता है - वस्तु उससे कुछ मिलता नहीं है।

(1) वस्तु को छोड़ कर जो भी पहचानने गए वह निराधार हुआ कि नहीं?

(2) इस निराधार सोच, कार्य-कलाप को करने वाला मनुष्य "आवारा पशु" जैसे हुआ कि नहीं?

(३) वर्तमान को शून्य करके विज्ञानी संसार को सच बोला कि झूठ बोला?

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)

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