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Tuesday, July 28, 2009

कोई भी और कुछ भी "बेकार" नहीं है.

सह-अस्तित्व वादी सोच-विचार में किसी भी वस्तु या व्यक्ति का तिरस्कार या उपेक्षा नहीं है। कोई आदमी "बेकार" है - यह इससे निकलता नहीं है। कोई वस्तु "बेकार" है - यह निकलता नहीं है। कोई स्थिति "बेकार" है - यह निकलता नहीं है। कोई गति "बेकार" है - यह निकलता नहीं है। सह-अस्तित्व-वादी विचार पूर्वक हर वस्तु के साथ उपयोग, सदुपयोग, और प्रयोजनशीलता को जोड़ने का सूत्र निकल जाता है। उसके लिए अध्ययन पूर्वक समझदार होना ही एक मात्र उपाय है।

व्यक्ति के अकेले का समझदार हो जाना पर्याप्त नहीं है। इसीलिये समझदार होने पर स्वयं से उपकार होना भावी हो जाता है।

एकान्तवादी आदर्शवादिता से यह भिन्न बात है। उसमें जो तपस्वी हो गया - वह अपने आप को "समझदार" मान लेता है। संसार को सुधरने की ज़रूरत है - यह भी मान लेता है। संसार नहीं सुधरता है तो वह "पापी" है, "स्वार्थी" है, "अज्ञानी" है - यह गाली देता है। संसार दुःख भोगने योग्य है, मैं अकेला हलवा खाने योग्य हूँ - यह भी मान लेता है। आदर्शवादी परम्परा ऐसी ही बनी हुई है।

ऐसी आदर्शवादी परम्परा से संसार का कोई उपकार नहीं हुआ। साधकों का सम्मान अवश्य हुआ - लेकिन साधना से होने वाली उपलब्धि संसार को मिला नहीं। भक्तिवादी, विरक्तिवादी, एकान्तवादी परम्परा संसार को कुछ "देने" के पक्ष में नहीं है। संसार से जो सम्मान मिलता है, उसको "लेने" के लिए वे तैयार बैठे रहते हैं। संसार आदर्शवादियों, भक्तिवादियों, विरक्तिवादियों का सम्मान आज भी करता है - इसकी गवाहीयाँ आप देख सकते हैं।

आदर्शवादी भी "बेकार" नहीं है। आदर्शवादी सुधरने के योग्य है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)

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