मनुष्य का ज्ञान-संपन्न हो जाना ही समझदारी है। ज्ञान है - सह-अस्तित्व दर्शन ज्ञान, जीवन ज्ञान, और मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान। ज्ञान-संपन्न हो जाना = सह-अस्तित्व में अनुभव होना।
ज्ञान के अनुरूप विवेक और विज्ञानं संपन्न हो जाना ही ईमानदारी है। मनुष्य का अपने जीने के लक्ष्य (क्यों जीना है?) के प्रति पूर्णतः स्पष्ट हो जाना विवेक है। मनुष्य का अपने जीने की दिशा (कैसे जीना है?) के प्रति पूर्णतः स्पष्ट हो जाना ही विज्ञान है।
मनुष्य का अपने संबंधों की सटीक पहचान सपन्न हो जाना ही जिम्मेदारी है। संबंधों को मनुष्य को बनाना नहीं है। संबंधों को पहचानना है, जिसका मतलब है - संबंधों में निहित प्रयोजनों को पहचानना। संबंधों को पहचानना समझदारी और ईमानदारी संपन्न होने पर ही सफल होता है।
मनुष्य का अपने संबंधों का निर्वाह करना ही भागीदारी है।
समझदारी और ईमानदारी संपन्न होने पर मनुष्य का मानवीयता पूर्ण आचरण के साथ जीना बनता है। फ़िर अपनी जिम्मेदारी स्वीकार होती है। फ़िर अपनी भागीदारी के विस्तार को तय किया जा सकता है।
समझदार होने पर जितनी सीमा में हम प्रमाणित होते हैं, उससे ज्यादा की संभावनाएं हमको दिखाई देने लगती हैं। हमारे स्वयं के पूरा पड़े बिना आगे की संभावनाएं कैसे पता चलेगा? स्वयं त्व सहित व्यवस्था होने पर अपने समग्र व्यवस्था में भागीदारी की सम्भावना दिखने लगता है। मुझको भी ऐसा ही हुआ। "समग्र व्यवस्था की सम्भावना है" - यह मैंने एक अकेले व्यक्ति ने शुरू किया था। आज मेरे साथ इसको लेकर जूझने वाले १० और लोग हो गए।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)
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