भ्रमित-मनुष्य में भी श्रेष्ठता को स्वीकारने का सहज गुण है। जिसको वह अपनी कल्पना में अधिक-श्रेष्ठ मानता है, उसको स्वीकार लेता है। जैसे - ज्यादा पैसा स्वीकृत होता है, कम पैसा स्वीकृत नहीं होता। सुरूप स्वीकार होता है, कुरूप स्वीकार नहीं होता। भ्रमित व्यक्ति में भी तुलन होता है। भ्रमित व्यक्ति में भी कल्पना-शीलता और कर्म-स्वतंत्रता है, जिसके कारण वह तुलन कर पाता है। तुलन के आधार पर मनुष्य में श्रेष्ठता की ओर गतियां हैं। (जीवों में यह बात नहीं होती। उनमें जो ज्यादा-कम है, वह आहार तक ही है।) इस "काल्पनिक श्रेष्ठता" को स्वीकारने के क्रम में मनुष्य अपने इतिहास में मनाकार को साकार करता आया।
अब यहाँ प्रस्तावित है - "मानव-चेतना में जीना जीव-चेतना में जीने से ज्यादा श्रेष्ठ है। मानव-चेतना पूर्वक मनुष्य सुख की निरंतरता और अखंड-समाज को प्रमाणित कर सकता है। जीव-चेतना में इनको प्रमाणित नहीं कर सकता।" जब मानव-चेतना के लिए प्राथमिकता बन जाता है, तो वह आचरण में आ ही जाता है।
कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता के अलावा मनुष्य के पास और कोई औजार नहीं है। उसी के आधार पर मनुष्य जिसको श्रेष्ठ मानता है, उसको स्वीकारता है। जब आपको यह स्पष्ट होता है कि मानव-चेतना पूर्वक जीना "परम आवश्यक" है - तब यह आपकी प्राथमिकता बनी। "मानव-चेतना में जीना आवश्यक है" - यह आपकी कल्पना में तो आ गया। इसकी आवश्यकता जब आप में इतनी बन जाए कि इसके बिना हम जी ही नहीं सकते - तो इसकी प्राथमिकता बनी।
कल्पनाशीलता पूर्वक पहले मानव-चेतना को लेकर "श्रेष्ठता का स्वप्न" बना। वही चीज हमको यदि जागते-सोते, खाते-पीते, उठते-बैठते नज़र आने लगे तो आप इस निष्कर्ष पर पहुँचते है - "इसके बिना मेरा जीवन अधूरा है।" कल्पना में जब इसकी प्राथमिकता बन गयी तो अध्ययन में लगना स्वाभाविक हो जाता है। अध्ययन का स्त्रोत दिया - मध्यस्थ दर्शन सह-अस्तित्व वाद। अध्ययन में लगेंगे तो समझेंगे ही!
साधना-समाधि-संयम पूर्वक मैंने प्रकृति से सीधा-सीधा जो पढ़ा उसे आपको किताब से पढने में क्या तकलीफ है?
प्रश्न: तो जब तक यह स्थिति स्वयं में नहीं बनती कि "इसके बिना मेरा जीना बनेगा नहीं" तब तक मैं साढ़े चार क्रिया में ही हूँ?
उत्तर: हाँ। तब तक कल्पना में मानव-चेतना के लिए प्राथमिकता आयी नहीं है।
साढ़े चार क्रिया में जीता हुआ ही मैं यहाँ साधना करने के लिए पहुँचा था। यहाँ आने से पहले अपनी कल्पनाशीलता के आधार पर ही तो मैं श्रेष्ठता को चाहता रहा। साढ़े चार क्रिया में जीते हुए जिस परम्परा में मैं था उसमें जो श्रेष्ठ मानते थे, उससे मैं संतुष्ट नहीं हो पाया। साधना सफल होने के बाद पता चला कि दसों क्रियाओं के साथ ही संतुष्टि पूर्वक जीना बनता है।
प्रश्न: तो क्या साक्षात्कार, बोध, और अनुभव "मानव-चेतना के प्राथमिकता में आने" के बाद है?
उत्तर: हाँ। यह बिल्कुल सही है।
प्रश्न: तो अभी हम जो "अध्ययन" के नाम पर जो कर रहे हैं, क्या वह अपनी कल्पना में मानव-चेतना के लिए प्राथमिकता को सबल बनाने की बात है?
उत्तर: हाँ। सूचना से मानव-चेतना की श्रेष्ठता के प्रति हमारी कल्पना में प्राथमिकता आ जाती है। वहाँ से अध्ययन शुरू होता है। इससे पहले मानव-चेतना संबन्धी प्रस्ताव आपकी स्मृति में आता रहा, इस तरह अंततोगत्वा अपनी कल्पना में मानव-चेतना के लिए प्राथमिकता को स्थापित कर लेते हो। उसके बाद साक्षात्कार, बोध, और अनुभव तत्काल होता है। सारा आगे-पीछे, देरी-जल्दी जब तक कल्पना में फंसे हैं, तभी तक है।
इसमें एक और बात ध्यान देने की है - इस प्रस्ताव के अनुरूप जीने का स्वरूप अभी आप जैसे जी रहे हो उससे भिन्न होगा। आप अभी की परम्परा में जिस डिजाईन में जी रहे हो, वैसे ही जीते रहो - और यह ज्ञान आपके जीने में प्रमाणित हो जाए, ऐसा सम्भव नहीं है। इस ज्ञान के अनुरूप जीने का डिजाईन है - समाधान-समृद्धि पूर्वक जीना। मानव-चेतना संपन्न होने के लिए यह प्रस्ताव आपके अधिकार में न आने में आना-कानी करने का एक बड़ा कारण है, हमारा जीव-चेतना के अपने जीने के कुछ पक्षों को सही माने रहना। जबकि मानव-चेतना और जीव-चेतना में कोई भी पक्ष में समानता नहीं है। मानव-चेतना को जीव-चेतना के साथ जोड़-तोड़ पूर्वक बैठाया नहीं जा सकता।
अध्ययन शुरू होता है तो जीना बनता ही है.
जब तक अध्ययन शुरू नहीं हुआ, तब तक हमारी कल्पनाएँ हमारे साथ बाधाएं डालता ही है। मूलतः बाधा डालने वाली कल्पना है - "शरीर को जीवन मानना"। ऐसी मान्यता के चलते जो बाधाएं आती हैं, उनमें से कुछ का स्वरूप है - हमारी आयु इंतनी हो गयी, अब हम इसको समझ नहीं पायेंगे। दूसरे, यह सब तो बेकार की बात है। तीसरे, यदि अपनी पूर्व-कल्पनाओं पर ज्यादा प्रहार होता है तो भी इस प्रस्ताव के लिए अपनी असमर्थता व्यक्त करना बनता है।
अध्ययन में सर्वप्रथम यही विश्लेषित होता है - जीवन और शरीर दो भिन्न वास्तविकताएं हैं। जीवन अमर है। शरीर नश्वर है। जीवन शरीर को चलाता है। नियति-क्रम में धरती पर मानव-शरीर परम्परा स्थापित होती है। जीवन में एक बार मानव-चेतना के लिए प्राथमिकता स्थापित हो जाती है तो वह सदा के लिए हो जाती है। आगे शरीर-यात्राओं में भी फ़िर स्वयं को प्रमाणित करने की अर्हता बनी रहेगी।
मनुष्य के जीने की दो ही स्थितियां हैं - साढ़े चार क्रिया में जीना, या दस क्रिया में जीना। इनके बीच में कोई स्थिति नहीं है। अभी तक के इतिहास में मनुष्य ने जो भी अध्ययन किया वह साढ़े चार क्रिया को संतुष्ट करने के अर्थ में किया। मध्यस्थ-दर्शन का अध्ययन सह-अस्तित्व में अनुभव पूर्वक जीवन की दसों क्रियाओं को प्रमाणित करने के लिए है।
अच्छी से अच्छी कल्पना भी मनुष्य के जीने में प्रमाणित होने का आधार नहीं हो सकती। सह-अस्तित्व में अनुभव ही मनुष्य के जीने में प्रमाणित होने का आधार हो सकता है। जीने में प्रमाणित होने का मतलब है - न्याय, धर्म, और सत्य को प्रमाणित करना।
प्रश्न: अस्तित्व के स्वरूप के इस प्रस्ताव में समाधान और सर्व-शुभ की सम्भावना तो स्पष्ट दिखाई देती है। लेकिन इसको अपने जीने से जोड़ नहीं पाने से मुझ में पीड़ा बढ़ी ही है। मैं "ज्यादा सुखी" हो गया - ऐसा कह नहीं पाता हूँ।
उत्तर: जिस परम्परा में आप पैदा हुए, बड़े हुए - उसमें जिसको अच्छा माना जाता है, उसको स्वीकार कर ही आप जिये। इसमें कोई आश्चर्य नहीं है। जैसे भी आप जीते रहे, उसके साथ आपकी निरंतर-सुख पूर्वक जीने की चाहत भी जुडी रही। अब आपके सामने यह प्रस्ताव सूचना के रूप में आया - उसको स्वयं के साथ जीने में जोड़ने में अभी सुगम नहीं हुआ है, यह आप कह रहे हो। इस प्रस्ताव में कहा गया है - सुविधा-संग्रह से ज्यादा अच्छा समाधान-समृद्धि पूर्वक जिया जा सकता है। समाधान-समृद्धि अभी हाथ नहीं लगा है, इस कारण से आपमें पीड़ा बढ़ी है - तो यह प्रयास सही दिशा में तो है। इस पीड़ा से मुक्त होने का निश्चित कार्यक्रम आप में से ही उद्गमित होगा. उसके लिए युक्ति है - प्रस्ताव के अध्ययन पूर्वक अपने में परिपूर्णता को प्राप्त करना। उसके बाद समृद्धि पूर्वक जीने का डिजाईन अपने आप से बनाना। समृद्धि पूर्वक जीने का एक डिजाईन नहीं होगा। समृद्धि पूर्वक जीने का डिजाईन हर मनुष्य में जागृति पूर्वक अपने आप से प्रकट होता है। समाधान सभी जागृत मनुष्यों में समान है। समृद्धि के डिजाईन अलग-अलग रहेंगे। मैंने जिस डिजाईन से समृद्धि को प्रमाणित किया, आप भी वही डिजाईन में प्रमाणित करें - ऐसा कोई नियम नहीं है।
"ब्रह्म जैसी परम-पवित्र चीज से मिथ्या कैसे पैदा होता है?" - यह मेरी पीड़ा का कारण हुआ था। उस पीड़ा के निराकरण के लिए मैंने साधना किया। आपमें जो इस प्रस्ताव को अपने जीने से न जोड़ पाने के कारण जो पीड़ा है, उसका निराकरण अध्ययन पूर्वक ही है।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)
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