भौतिकवाद नाप-दण्डो को लेकर चला - उसको "विज्ञान" मान लिया। एक मीटर के अरब अंश तक नाप लेने के बाद उससे भी सूक्ष्म, खरब अंश तक नापने की जगह बना ही रहता है। दूसरे - इस सौर-मंडल के हर गृह को नाप लेने के बाद अनंत और सौर-मंडल, अनंत और गृह बचा ही रहता है। जितना नापते हैं, उससे आगे और नाप सकते हैं - यह बना ही रहता है।
कितना नापोगे? कहाँ तक नापोगे?
हमारी अपेक्षा या आशा के अनुसार हम यह तय नहीं कर पायेंगे। आशा और अपेक्षा जीवन शक्तियां हैं, जो अक्षय हैं - उनके आधार पर कितना नापना है, यह तय नहीं हो सकता। आशा जीवन में अक्षय शक्ति है। नापने का कार्य जीवन और शरीर के संयुक्त रूप में है।
समझदारी के बिना मनुष्य अपनी आवश्यकता को तय नहीं कर सकता। अपनी आवश्यकता को तय करे बिना और-और नापने की प्यास बनी ही रहेगी। भौतिकवादी विधि से आवश्यकता का ध्रुवीकरण नहीं हो सकता। आवश्यकताएं असीमित होने से सुविधा-संग्रह के लिए होड़ अवश्यम्भावी हो जाती है। उस होड़ में मनुष्य द्वारा धरती का शोषण और एक-दूसरे का शोषण भावी हो जाता है।
समझदारी पूर्वक अपनी आवश्यकता का ध्रुवीकरण होने पर ही अपने नापने की सीमा को मनुष्य तय कर सकता है। जितनी आवश्यकता है, उतना फ़िर नाप ही सकते हैं। उससे ज्यादा को नापने फ़िर हम जाते नहीं हैं।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)
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