प्रश्न: मनुष्य को ज्ञान क्यों चाहिए?
उत्तर: सुखी होने के लिए। सुखी होने के बाद सुखी रहना बनता है। मनुष्य को सुखी होने के लिए ज्ञान की पहचान आवश्यक है, इसी आधार पर मनुष्य ज्ञान-अवस्था में है।
सुख किसी संख्या में नहीं आता। मानव द्वारा बनाए गए macro या micro किसी भी scale पर सुख को नापा नहीं जा सकता। विगत ने शब्द-संसार द्वारा सुख को लेकर जो कुछ भी बताया - उससे सुख के स्वरूप की पहचान नहीं हुआ। इस तरह आदर्शवाद और भौतिकवाद दोनों द्वारा सुख की पहचान नहीं हुई। यह यदि आपमें निर्णय हो पाता है तो आप उनके छूत से छुटोगे, नहीं तो छूत पकड़ा ही रहेगा!
"मनुष्य सुखी होना चाहता है।" - यह बात भारतीय-अध्यात्मवाद ने दिया। "इन्द्रियों में सुख की निरंतरता नहीं है।" - इस बात की भी घोषणा किया। इसके लिए हम विगत के लिए कृतज्ञ हैं। सुख किसमें होता है ? - यह पूछने पर विगत में उसको रहस्यमय बताया।
सुखी होने के ज्ञान को उजाले में बताने के लिए हम जा रहे हैं। सुख का "स्वरूप ज्ञान" जो आदर्श-वाद और भौतिक-वाद के प्रयासों से स्पष्ट नहीं हो पाया था, उसके लिए मैंने प्रयत्न किया - जिसमें मैं सफल हो गया।
मानव का अध्ययन सुखी होने के अर्थ में ही है, और कोई अर्थ में नहीं है। मानव का अध्ययन न हो - और सुख पहचान में आ जाए, यह सम्भव नहीं है।
संवेदनाओं में मनुष्य को सुख भासता है (सुख जैसा लगता है)। इससे सुख कुछ "है" - यह मनुष्य को स्वीकार हो गया। "संवेदनाओं में सुख की निरंतरता नहीं होती" - यह भी मनुष्य की पहचान में आ गया। सुख की निरंतरता कैसे हो? - यह बात मनुष्य के समझ में अभी तक नहीं आयी।
प्रश्न: सुख की निरंतरता कैसे हो?
ज्ञान, विवेक, और विज्ञान विधि से जीने पर मनुष्य में सुख की निरंतरता होती है। सह-अस्तित्व में अध्ययन पूर्वक मनुष्य का ज्ञान, विवेक, विज्ञान विधि से जीना बनता है।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)
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