ANNOUNCEMENTS



Friday, July 17, 2009

न्याय

न्याय का अर्थ है - सम्बन्ध, मूल्य, मूल्यांकन, और उभय-तृप्ति।

दो समझदार (अनुभव संपन्न) व्यक्तियों के बीच ही न्याय प्रमाणित होता है।

दो भ्रमित व्यक्तियों के बीच न्याय प्रमाणित होने की कोई सम्भावना ही नहीं है।

एक व्यक्ति समझदार हो, दूसरा समझदार नहीं हो - उस स्थिति में समझदार व्यक्ति अपने में तृप्ति पूर्वक न्याय करता है। लेकिन दूसरा व्यक्ति (जो समझदार नहीं है) वह प्रामाणिकता के अभाव में न्याय नहीं कर पाता है, और अपने में अतृप्त ही रहता है। इसलिए इस स्थिति में उभय-तृप्ति नहीं होगी।

समझदार व्यक्ति के साथ भ्रमित व्यक्ति के सम्बन्ध में भ्रमित-व्यक्ति के समझ कर तृप्त होने का मार्ग बनता है। समझदार व्यक्ति भ्रमित व्यक्ति की तृप्ति के लिए मार्ग-दर्शन हेतु प्रेरणा का स्त्रोत बन जाता है।

समझदार व्यक्ति द्वारा न्याय करना कोई अहसान नहीं है। समझदार व्यक्ति अपनी संतुष्टि को प्रमाणित करते हुए, "स्वाभाविक" रूप में न्याय करता है, विश्वास मूल्य को प्रमाणित करता है। समझदार व्यक्ति के साथ भ्रमित व्यक्ति भी कोई अविश्वास का काम नहीं कर पाता है। जैसे - मेरे साथ कोई व्यक्ति चाहे आगंतुक विधि से क्यों न हो - मेरे साथ अविश्वास नहीं कर पाता है। मेरे न्याय करते हुए, उस प्रभाव में, आप कोई अविश्वास का काम कर ही नहीं सकते। अविश्वास का आप कोई प्रस्ताव ही नहीं रख सकते।

पशु-मानव या राक्षस-मानव एक मानवीयता-संपन्न मानव के सम्मुख अपनी पशुता और राक्षसीयता को व्यक्त नहीं कर पाता है। मानवीयता संपन्न मानव का यह प्रभाव सामयिक रहता है। क्योंकि इस सान्निध्य से बाहर आने पर पशु-मानव और राक्षस-मानव प्रवृत्तियां (दीनता, हीनता, क्रूरता) वापस हो सकता है। किंतु जो क्षण उसने मानव के सान्निध्य में बिताये - उसके स्मरण में वह नयी परिस्थितयों को जांचने लगता है। जांचने पर जो उसको ज्यादा मूल्यवान लगता है, उसमें वह संलग्न हो जाता है। उसके परिवार में न्याय-पूर्वक जीने की "चाहत" पहले से ही बनी रहती है। अडोस-पड़ोस में न्याय-पूर्वक जीने की "चाहत" रहती ही है। शनै शनै अध्ययन पूर्वक वह व्यक्ति मानवीयता संपन्न होने तक पहुँचता ही है।

मानवीयता संपन्न होने पर मनुष्य अपने में सिमट नहीं पाता है। मानव का प्रकट होना ही होता है। गलतियों और अपराध-प्रवृत्ति के साथ मनुष्य सिमट जाता है। न्याय के साथ मानव का विस्तार बढ़ता जाता है। जीवन अपनी स्वीकृतियों के आधार पर ही अपने विस्तार का निर्धारण करता है। आप और मैं यदि न्याय को प्रमाणित कर पाते हैं, तो वह तीसरे व्यक्ति तक प्रसारित होता ही है। हम तीनो यदि न्याय पूर्वक जी गए तो चौथे, फ़िर पाँचवे तक यह पहुँचता ही है। न्याय और उभय-तृप्ति का स्वागत होता ही है।

मानव परस्परता में विश्वास ही तृप्ति बिन्दु है। विश्वास कोई भौतिक-रासायनिक वस्तु नहीं है। यह चैतन्य प्रक्रिया है। संबंधों में मूल्यों को प्रमाणित करने के अर्थ में ही भौतिक-रासायनिक वस्तुएं (शरीर-पोषण, संरक्षण, और समाज-गति के अर्थ में) अर्पित-समर्पित होते ही हैं।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)

No comments: