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Tuesday, July 28, 2009

समाधान लक्ष्य की प्राथमिकता

प्रश्न: समाधान लक्ष्य की प्राथमिकता को स्वयं में स्थिर करने का क्या उपाय है?

उत्तर: इसके लिए सहज उपाय है - "श्रेष्ठता प्रकरण"। श्रेष्ठता को स्वीकारना या "मानना" पड़ता है।

जीव-चेतना में हम जो कुछ भी करते-धरते हैं - उसका गम्य-स्थली "सुविधा-संग्रह" ही है। पहले स्वयं में यह निष्कर्ष निकलना।

सुविधा-संग्रह में हमको अच्छा लगता तो है, लेकिन इसका कोई तृप्ति-बिन्दु नहीं है। सुविधा-संग्रह का तृप्ति-बिन्दु आज तक किसी को मिला नहीं है। आगे किसी को मिलने की सम्भावना भी नहीं है। इस निष्कर्ष में पहुंचना।

यदि आप इस जगह में पहुँच जाते हैं तो मानव-चेतना की आपमें अपेक्षा बन जाती है।

मानव-चेतना की अपेक्षा बनने के बाद उसको पाने के लिए जो हमारा मन लगता है - उसको "ध्यान" कहते हैं। लगाने के लिए हमारे पास तन, मन, और धन होता है। इसमें से मन लगाने का जो भाग है, उसको "ध्यान" कहते हैं। अध्ययन के लिए ध्यान देने की आवश्यकता है। उसका मतलब यही है - मन लगाना।

अध्ययन में यदि आपका मन लगता है तो शनै-शनै आप मानव-चेतना के बारे में स्पष्ट होते जाते हैं। एक दिन उसी क्रम में वह बिन्दु आता है, जब मानव-चेतना आपको "स्वत्व" के रूप में स्वीकार हो जाती है। उसी बिन्दु से जागृति प्रकट होती है। वही जीवन की दसों क्रियाओं का प्रमाण है। अध्ययन में मन लगना यदि पूरी ईमानदारी से हो जाता है - तो वह मानव-चेतना में प्रवृत्त होने का पूरा रास्ता बना देता है।

अध्ययन करने के लिए आपको कोई अतिवाद करने की आवश्यकता नहीं है। आप अभी जो कर रहे हो उसके प्रति त्याग-वैराग्य की कोई बात आता नहीं है। आप अध्ययन करते रहो - कोई एक जगह/क्षण ऐसा आएगा - जब मानव-चेतना आपके लिए स्वीकार हो जायेगी। उस बिन्दु तक अध्ययन है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)

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