ANNOUNCEMENTS



Wednesday, July 15, 2009

मंगल मैत्री पूर्वक ही प्रबोधन सफल होता है.



प्रबोधन की परिभाषा है - अन्य व्यक्ति में सत्य-बोध कराने के लिए परिपूर्णता के अर्थ में शब्दों का प्रयोग करना। जिसको बोध हुआ वह व्यक्ति अनुभव पूर्वक पुनः प्रबोधित करेगा। इस ढंग से ज्ञान-अवस्था की परम्परा बनती है। जितना हम और लोगों को बोध कराते हैं, हमारा उत्साह और प्रसन्नता और बढ़ता जाता है। इस ढंग से मानव थकने वाले गुण से मुक्त हो जाता है।

मंगल-मैत्री के बिना प्रबोधन सफल हो ही नहीं सकता। मंगल-मैत्री ही दूसरे व्यक्ति में बोध होने के लिए एक पवित्र, पावन, निर्मल, और शुद्ध आधार-भूमि है। अध्ययन करने वाला प्रबोधक को पारंगत मान कर ही उसकी बात सुनता है। यदि उसे पारंगत नहीं मानता तो वह उसकी बात सुनता ही नहीं है। मंगल-मैत्री पूर्वक ही सुनने वाला और सुनाने वाला एक दूसरे पर विश्वास कर सकते हैं। सुनाने वाला पारंगत है, यह विश्वास सुनने वाले में हो - और सुनने वाला ईमानदारी से सुन रहा है, इसको बोध होगा - यह विश्वास सुनाने वाले में हो - तभी प्रबोधन सफल होता है। यदि परस्पर यह विश्वास नहीं होता तो हम बतंगड़ में फंस जाते हैं। बोध की अपेक्षा में ही विद्यार्थी यदि जिज्ञासा करता है, तो उसको बोध होता है। बोध की अपेक्षा को छोड़ कर हम और कोई reference से यदि तर्क करते हैं, तो रास्ते से हट जाते हैं। सुई की नोक से भी यदि इससे हटते हैं, तो किसी दूसरे ही दिशा में चले जाते हैं।

"स्वभाव गति" में रहने पर ही मंगल-मैत्री होता है, तो अध्ययन के लिए आवश्यक है। आवेशित-गति में रहने पर अध्ययन नहीं होता। बेहोश रहने पर भी नहीं होता। चंचलता बने रहने पर भी नहीं होता। मन यदि भटकता रहे और आप सुनते रहे तो कुछ समझ में नहीं आएगा। मन को एक ही समय में तीन जगह रहने का अधिकार रहता है। इस लिए अध्ययन के लिए विद्यार्थी द्वारा अपने मन को स्थिर करने की आवश्यकता है। इसी का नाम है - "ध्यान"। अध्ययन के लिए ध्यान देना बहुत आवश्यक है। अध्ययन करना ही ध्यान का प्रयोजन है। आँखें मूँद लेना कोई ध्यान नहीं है - उससे कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं हुआ।

यदि हमने ध्यान दिया तो अस्तित्व में कोई ऐसी चीज नहीं है जो हमको बोध न हो। अस्तित्व में किसी चीज पर बुरका नहीं लगा। सम्पूर्ण अस्तित्व सह-अस्तित्व स्वरूप में "खुला" है। इसी आधार पर अस्तित्व में अनुभव किए हुए आदमी द्वारा दूसरे आदमी को बोध कराना सहज है। स्वभाव-गति में होने पर ही दूसरा आदमी उसको ग्रहण कर पाता है। जो ग्रहण किया वह यदि तृप्ति नहीं दे पाता है, तो उस स्थिति में वह जिज्ञासा कर सकता है - संतुष्ट होने के लिए। इस तरह सुनने वाले और सुनाने वाले के बीच मंगल-मैत्री पूर्वक सारी बात स्पष्ट हो सकता है। यदि सुनने वाले और सुनाने वाले में समान रूप से स्पष्टता हो जाती है तो दोनों में एकरूपता हो गया कि नहीं? यह एकरूपता होना ही "अनन्यता" है।

प्रबोधक अनुभव-प्रमाण का धारक-वाहक होता है। अनुभव-प्रमाण का धारक-वाहक होने के लिए अनुभव-प्रमाण का दृष्टा बने रहना आवश्यक है।

बोध कराने के लिए प्रबोधक और विद्यार्थी के बीच सम्प्रेश्ना होती है। वह सम्प्रेश्ना ज्यादा स्नेहिल हो तो प्रबोधन जल्दी सफल हो जाता है। गणितात्मक भाषा सूखी-सूखी है, और गति के साथ है। गुणात्मक भाषा थोड़ा ज्यादा स्नेहिल है, और प्रयोजन के साथ है। कारणात्मक भाषा पूर्णतया स्नेहिल है, और प्रमाण के साथ है। कारण-गुण-गणित के संयुक्त स्वरूप में मानवीय भाषा के प्रयोग से प्रबोधन होता है। प्रबोधन स्नेहिल विधि से ही पल्लवित और पुष्पित होता है। विरोधाभासी विधि से नहीं होता।

भौतिक वस्तुओं का आवंटन किया जा सकता है। उनका भाग-विभाग किया जा सकता है। उनका विनिमय किया जा सकता है। लेकिन ज्ञान का आवंटन नहीं किया जा सकता। ज्ञान का भाग-विभाग नहीं होता। कितने भी व्यक्ति ज्ञान का बोध करें, ज्ञान में अनुभव करें, ज्ञान को प्रमाणित करें - ज्ञान न कम होता है, न ज्यादा होता है। इसलिए ज्ञान का व्यापार नहीं होता। ज्ञान का दूसरे को बोध ही कराया जा सकता है। किसी व्यक्ति से यदि हमको बोध हुआ तो उसके प्रति हमारा कृतज्ञ रहना ही बनता है। हमारी कृतज्ञता ही उसका प्रतिफल है। उससे ज्यादा हम कुछ दे भी नहीं सकते।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)

No comments: