जीव-चेतना में जीते हुए मनुष्य-जाति ने अनेक काल्पनिक आधारों पर अपने-पराये की दीवारें बनायी हैं - जैसे जाति, समुदाय, रंग, वेश-भूषा आदि। इस धरती पर अनेक भाषाएँ तैयार हुआ है। भाषा के आधार पर भी अपने-पराये की दीवारें बनी हैं। समान भाषा बोलने वाले "अपने", हमसे भिन्न भाषा बोलने वाले "पराये"! इसके निराकरण के लिए "मानवीय भाषा" को पहचानने की ज़रूरत है।
सभी मानव-सहज कार्य-कलापों, सोच-विचार, और अनुभव को परस्परता में इंगित कराने के लिए "मानवीय भाषा" है।
कारण, गुण, गणित के संयुक्त स्वरूप में "मानवीय भाषा" है।
गणना करने के लिए गणितात्मक भाषा है। सम, विषम, और मध्यस्थ गुणों को इंगित करने के लिए गुणात्मक भाषा है। सह-अस्तित्व मूल सत्य को इंगित करने के लिए कारणात्मक भाषा है। इसके अलावा और कुछ इंगित करने की कोई वास्तविकता नहीं है।
इससे पहले अध्यात्म-वादियों ने कारणात्मक भाषा का प्रयोग किया - गुणात्मक और गणितात्मक भाषा को नकार दिया। उसके बाद भक्तिवादियों ने अतिशयोक्तियों के साथ गुणात्मक भाषा का प्रयोग किया, कारणात्मक और गणितात्मक भाषा को नकार दिया। भौतिकवादियों (प्रचलित-विज्ञान) ने गणितात्मक भाषा का प्रयोग किया, कारणात्मक और गुणात्मक भाषा को नकार दिया। जबकि मानवीय-भाषा कारण, गुण, गणित तीनो आधारों पर ही टिकती है।
मध्यस्थ-दर्शन का अध्ययन कराने के लिए परम्परागत भाषा के शब्दों का ही प्रयोग किया गया है। शब्दों को परिभाषाएं दी गयी हैं - जो परम्परा से नहीं हैं। परिभाषाएं ज्ञान के अर्थ में हैं - जो सह-अस्तित्व में अनुभव पूर्वक होता है। अध्ययन करने वाला अपनी कल्पनाशीलता को इन परिभाषाओं में नियोजित करके अस्तित्व सहज वास्तविकताओं को पहचानता है। सभी भाषाओँ को इन परिभाषाओं से सूत्रित किया जा सकता है। सभी भाषाएँ फ़िर एक ही अर्थ (अस्तित्व सहज वास्तविकता) को इंगित करेंगी। यही भाषाओँ के लेकर बनी अपने-पराये की दीवारों का निराकरण होने का सूत्र है।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)
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