जीव-चेतना में जीते हुए मानव के जीने में वैविध्यता कहाँ वैध है, कहाँ अवैध है - यह तय नहीं है।
मानव-चेतना पूर्वक मानव की जीने का लक्ष्य (समाधान, समृद्धि, अभय, सह-अस्तित्व) और आशय (सुख, शान्ति, संतोष, आनंद) तय हो पाता है। यह लक्ष्य और आशय हर व्यक्ति में तय होने के बाद भी अलग अलग व्यक्तियों के समझने-समझाने, सीखने-सिखाने, करने-कराने का तरीका अलग-अलग होगा। हर कोई व्यक्ति एक ही जैसा बोलने, करने, समझने लगे - तो मानव और यंत्र में फर्क क्या हुआ? मानव यंत्र नहीं है। हम विविध प्रकार से समझते हैं, सीखते हैं, करते हैं - अपने लक्ष्य (समाधान, समृद्धि, अभय, सह-अस्तित्व) को पाने के लिए। हम विविध प्रकार से समझाते हैं, सिखाते हैं, कराते हैं - अपनी समझ को प्रमाणित करने के लिए। यही मानव-चेतना में जीते हुए मनुष्यों में वैविध्यता का स्थान है। यह वैविध्यता मानव में निहित कल्पनाशीलता कर्म-स्वतंत्रता की महिमा है।
समझने-समझाने, सीखने-सिखाने, करने-कराने के तरीके का कोई मूल्यांकन नहीं है।
समझा दिया, सिखा दिया, करा दिया - उसका मूल्यांकन है।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)
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