परिपूर्ण या बिल्कुल-सही होने की अपेक्षा संसार के हर व्यक्ति में है। यह आप संसार में कहीं भी आजमा लो! परिपूर्णता को नकारने वाला भी क्या कोई होगा संसार में?
यदि आप परिपूर्णता के अर्थ में काम करते हैं तो उसके लिए आपके संपर्क में आने वाले लोगों की सहमति अपने आप से जुड़ जाती है, कि - "यह आदमी कुछ ठीक कह रहा है", "यह आदमी कुछ ठीक कर रहा है"। इस सहमति के साथ उनका सहयोग भी जुड़ जाता है। यह अपने-आप से होता है।
जैसे- मैं यहाँ अमरकंटक में अपने स्व-जनों से दूर जब साधना करने पहुँचा, तो मेरे उद्देश्य को सुन कर यहाँ के लोग कहने लगे - "यह ठीक सोच रहा है"। ये लोग मेरे अभिभावक जैसे हो गए। उनकी अनुकम्पा, सहयोग, सहमति मुझको मिलने लग गयी। यह अपने आप से होने लगा।
परपरागत विधि से जितनी अच्छाइयां हमको समझ में आती हैं, उनको प्रमाणित करने की इच्छा सहित उससे अधिक श्रेष्ठता के लिए यदि आपमें संकल्प होता है - तो उसे नकारा न जाए। अपने अनुसंधान के सफल हो जाने के बाद आज मेरा लोगों को यही कहना बनता है।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)
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