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Tuesday, July 7, 2009

सकारात्मक सार्थकता

"मानव संचेतना" का अर्थ है - स्वयं (जीवन) में निहित मूल्यों को अपने जीने में प्रमाणित करना। { स्वयं (जीवन) में निहित (स्थापित) मूल्य हैं - (विश्वास, सम्मान, स्नेह, श्रद्धा, ममता, वात्सल्य, कृतज्ञता, गौरव, प्रेम) }

स्वयं (जीवन) में निहित मूल्यों की पहचान अपने संबंधों के आधार पर होती है।

संबंधों की पहचान उनमे निहित प्रयोजनों के आधार पर होती है।

हर सम्बन्ध का प्रयोजन है - व्यवस्था में होना, और समग्र व्यवस्था में भागीदारी करना। सम्बन्ध का और कोई प्रयोजन नहीं है।

मूल में - अस्तित्व सह-अस्तित्व है। इसीलिये सह-अस्तित्व नित्य प्रभावी है। इसीलिये अस्तित्व में हरेक एक अपने त्व सहित व्यवस्था और समग्र व्यवस्था में भागीदारी करता है। इसी क्रम में मानव मानवत्व सहित एक व्यवस्था है, और समग्र-व्यवस्था में भागीदारी करता है।

मानव मानवत्व सहित जीने में असमर्थ है - इसीलिये अपराध करता है। शेष तीनो अवस्थाएं (पदार्थ-अवस्था, प्राण-अवस्था, जीव-अवस्था) अपने त्व सहित व्यवस्था होने में समर्थ हैं - इसीलिये वे कोई अपराध करते नहीं हैं। इसीलिये मानव-जाति को मानवत्व सहित व्यवस्था में समर्थ बनाने की आवश्यकता है। जीव-चेतना से मानव-चेतना में संक्रमित होने पर मनुष्य अपने संबंधों को प्रयोजनों के अर्थ में पहचान पाता है।

मनुष्य के व्यवस्था में होने और समग्र व्यवस्था में भागीदारी करने के आधार पर ही उसके द्वारा "न्याय" करना बनता है। न्याय का मतलब है - संबंधों की पहचान, मूल्यों का निर्वाह, मूल्यांकन, और उभय-तृप्ति। उसी के साथ "मानव चरित्र" स्थापित होता है। उसी के साथ "नैतिकता" स्थापित होती है। मूल्य, चरित्र, और नैतिकता अलग-अलग नहीं होता। मूल्य होगा तो चरित्र भी होगा। चरित्र होगा तो नैतिकता भी होगा। नैतिकता होगा तो मूल्य और चरित्र भी होगा। इस तरह "मानवीयता पूर्ण आचरण" को मैंने मूल्य, चरित्र, और नैतिकता के संयुक्त स्वरूप में मैंने पहचाना।

जीव-चेतना से मानव-चेतना में संक्रमित होने के बाद ही मनुष्य मानवीयता पूर्ण आचरण करता है। उससे पहले एक भी आदमी मानवीयता पूर्ण आचरण नहीं कर पायेगा। मानव-चेतना में संक्रमित होने के पहले भी कई आदमी "ज्ञानी" कहला चुके - पर मानवीयता पूर्ण आचरण प्रमाणित नहीं हुआ। कई आदमी "विज्ञानी" कहला चुके - पर मानवीयता पूर्ण आचरण प्रमाणित नहीं हुआ। अज्ञानी में मानवीयता पूर्ण आचरण प्रमाणित होने का प्रश्न ही नहीं है।

ये निर्णयात्मक प्रस्तुतियां हैं। इन निर्णयों में यदि आपको कुछ समझ नहीं आता है, तो उसको समझने के लिए आप अपनी जिज्ञासा व्यक्त कर सकते हैं।

ये निर्णयात्मक प्रस्तुतियां हैं। आपकी आवश्यकता होने पर ही आप इनको स्वीकार करेंगे। आपको आवश्यकता नहीं होता है तो आप इनको स्वीकार नहीं करेंगे। यह वैसा ही है - आपको प्यास लगती है तो आप पानी को स्वीकारते हो। "सकारात्मक सार्थकता" इसी विधि से आता है।

"विकल्पात्मक अध्ययन" को एक सम्भावना के रूप में मैंने स्वीकारा है। अभी यह सम्भावना ही है। अभी हम भरोसमंद नहीं हैं। अध्ययन के बाद ही आप-हम इसके प्रति भरोसमंद होंगे।

आपको यदि इसकी आवश्यकता महसूस होती है और आप इसको स्वीकारते हैं तो यह मेरी आवश्यकता और मेरी स्वीकृति का प्रमाण मिलता है। आपको देख कर तीसरे आदमी में भी इसकी आवश्यकता बन सकती है - यह अनुमान किया ही जा सकता है। यदि ऐसा होता है - तो ७०० करोड़ आदमियों को इसकी आवश्यकता है, ऐसा मैं अनुमान करूंगा।

७०० करोड़ आदमियों के लिए इसे कैसे प्रस्तुत किया जाए - इसकी एक निश्चित विधि बनेगी। इसका नाम दिया - "शिक्षा विधि"। शिक्षा विधि के लिए तीन प्रबंध दिए - (१) मानव संचेतना वादी मनोविज्ञान, (२) आवर्तनशील अर्थ-शास्त्र, (३) व्यवहारवादी समाजशास्त्र। उन तीन प्रबंधों का अध्ययन कराने की व्यवस्था दिया। अध्ययन कराने के कार्यक्रम को निशुल्क रखा। अध्ययन कराने के लिए मुझे कोई प्रतिफल नहीं चाहिए। ज्ञान और धर्म का व्यापार करना महा-अपराध है।

प्रचलित-विज्ञानं का ज्ञान-पक्ष अपराधिक है। तकनीकी पक्ष ठीक है। प्रचलित-विज्ञान के तकनीकी पक्ष को यथावत रखा जाए, ज्ञान-पक्ष पर पुनर्विचार किया जाए। प्रचलित-विज्ञान के ज्ञान-पक्ष में अस्थिरता-अनिश्चयता के स्थान पर अस्तित्व में स्थिरता और निश्चयता के स्वरूप का अध्ययन हो। "अस्तित्व स्थिर है, विकास और जागृति निश्चित है।" - इस एक वाक्य में प्रचलित-विज्ञान के अपराधिक ज्ञान से विधि-ज्ञान में परिवर्तित होने का सूत्र है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)

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